Friday 31 July 2015

म्यार पहाड़







अगर मेरा गांव मेरा देश हो सकता है तो म्यार पहाड़ क्यों नही? म्यार पहाड़ यानि मेरा पहाड़ लेकिन ऐसा कहने से ये सिर्फ मेरा होकर नही रह जाता ये तो सब का है वैसे ही जैसे मेरा भारत हर भारतवासी का भारत। खैर पहाड़ को आज दो अलग अलग दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं, एक कल्पना के लोक में और दूसरा सच्चाई के धरातल में।


जिनकी नई-नई शादियां होती हैं हनीमून के लिये उनमें ज्यादातर की पहली या दूसरी पसंद होती है कोई हिल स्टेशन। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी होती है उनकी भी पहली या दूसरी पसंद होता है कोई हिल स्टेशन, अब बूढ़े हो चले हैं धर्म कर्म करने मन हो चला है तो भी याद आता है म्यार पहाड़ चार धाम की यात्रा के लिये।


पहाड़ की खूबसूरती होती ही ऐसी है कि किसी को भी बरबस अपनी तरफ आकर्षित कर ले, वो ऊंची ऊंची पहाड़ियाँ, सर्दियों में बर्फ से ढकी वादियाँ, पहाड़ों को चुमने को बेताब दिखते बादल, मदमस्त किसी अलहड़ सी भागती पहाड़ी नदियां, सांप की तरह भागती हुई दिखायी देती सड़कें, कहीं दिखायी देते वो सीढ़ीनुमा खेत तो कहीं दिल को दहला देनी वाली घाटियां, जाड़ों की गुनगुनी धूप और गर्मियों की शीतलता। शायद यही सब है जो लोगों को अपनी और खिंचता है, बरबस उन्हें आकर्षित करता है अपने तरफ आने को।


लेकिन पहाड़ में रहने वाले के लिये, एक पहाड़ी के लिये ये शायद रोज की ही बात हो उसका जुड़ाव पहाड़ से तो कुछ जुदा ही है। ये जुड़ाव मुखर हो उठता है पहाड़ से जुदा होते ही नराई के बहाने, बकौलकाकेश -


मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने का निठल्ला चिंतन। ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है ना ही मेरा सौन्दर्यबोध, मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल है ,मिट्टी की सौंधी महक है , ‘हिसालू’ के टूटे मनके है , ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं , ‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है , ‘घौत’ की दाल है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको बारामासा’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है , ‘पालक का कापा’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है।


मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह को ढाल बनाकर लड़ रहा है. लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-मारखां समझने लगता है।


पहाड़, शिव की जटा से निकली हुई गंगा है, कालिदास का अट्टाहास है, पहाड़ सत्य का प्रतीक है, जीवन का साश्वत सत्य है। कठिन परिस्थितियों में भी हँस हँस कर जीने की कला सिखाने वाली पाठशाला है. गाड़, गध्यारों और नौले का शीतल, निर्मल जल है, तिमिल के पेड़ की छांह है, बांज और बुरांस का जंगल है, आदमखोर लकड़बग्घों की कर्मभूमि है। मिट्टी में लिपटे, सिंगाणे के लिपोड़े को कमीज की बांह से पोछ्ते नौनिहालों की क्रीड़ा-स्थली है। मोव (गोबर) की डलिया को सर में ले जाती महिला की दिनचर्या है, पिरूल सारती, ऊंचे ऊंचे भ्योलों में घास काटती औरत का जीवन है।


कैसे भूल सकता है कोई ऎसे पहाड़ को, पहाड़ तूने ही तो दी थी मुझे कठोर होकर जीवन की आपाधापियों से लड़ने की शिक्षा। कैसे भूल सकता हूँ मैं असोज के महीने में सिर पर घास के गट्ठर का ढोना, असोज में बारिश की तनिक आशंका से सूखी घास को सार के फटाफट लूटे का बनाना, फटी एड़ियों को किसी क्रैक क्रीम से नहीं बल्कि तेल की बत्ती से डामना फिर वैसलीन नहीं बल्कि मोम-तेल से उन चीरों को भरना, लीसे के छिलुके से सुबह सुबह चूल्हे का जलाना, जाड़े के दिनों में सगड़ में गुपटाले लगा के आग का तापना , “भड्डू” में पकी दाल के निराले स्वाद को पहचानना. तू शिकायत कर सकता है पहाड़ ..कि भाग गया मैं, प्रवासी हो गया, भूल गया मैं ….लेकिन तुझे क्या मालूम अभी भी मुझे इच्छा होती है “गरमपानी” के आलू के गुटके और रायता खाने की. अभी भी होली में सुनता हूँ ‘तारी मास्साब’ की वो होली वाली कैसेट …अभी भी दशहरे में याद आते है “सीता का स्वय़ंबर” , “अंगद रावण संवाद”, “लक्ष्मण की शक्ति” . अभी भी ढूंढता हूँ ऎपण से सजे दरवाजे और घर के मन्दिर .अभी भी त्योहार में बनते हैं घर में पुए , सिंघल और बड़े. कहाँ भूल पाऊंगा मैं वो “बाल मिठाई” और “सिंघोड़ी”, मामू की दुकान के छोले और जग्गन की कैंटीन के बिस्कुट।


तेरे को लगता होगा ना कि मैं भी पारखाऊ केबड़बाज्यू की तरह गप मारने लगा लेकिन सच कहता हूं यार अभी भी जन्यू –पून्यू में जनेऊ बदलता हूं, चैत में “भिटोली” भेजता हूं, घुघुतिया ऊतरैणी में विशेष रूप से नहाता हूं ( हाँ काले कव्वा ,काले कव्वा कहने में शरम आती है ,झूठ क्यूं बोलूं ), तेरी बोजी मुझे पिछोड़े और नथ में ही ज्यादा अच्छी लगती है .मंगल कार्यों में यहाँ परदेश में “शकुनाखर” तो नहीं होता पर जोशी ज्यू को बुला कर दक्षिणा दे ही देता हूं .


तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा.. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं .तू बुरा तो नहीं मानेगा ना ..मैं आऊंगा तेरे पास . गोलज्यू के थान पूजा दूंगा ..नारियल ,घंटी चढाऊंगा .. बाहर से जरूर बदल गया हूँ पर अंदर से अभी भी वैसा ही हूँ रे ..तू फिकर मत करना हाँ..


ये भावनायें हर उस पहाड़ी की है जिसके रोम रोम में पहाड़ रचा बसा है, और ये नराई अकेले काकेश की नराई नही है ये उन सब पहाड़ियों की नराई है जो पहाड़ से बहुत दूर चले आये हैं। काकेश का ये कहना कि भाग गया मैं, प्रवासी हो गया साथ ही अपने और पहाड़ को सांत्वना देता “मैं आऊंगा तेरे पास कहना” हर उस पहाड़ी के दिल से निकलती आवाज है जो पहाड़ से दूर जिंदगी की जद्दोजहद में उलझा हुआ है और एक बेहतर जीवन की लालसा में पहाड़ से दूर होता जा रहा है। शायद ये हर उस व्यक्ति का सच है जो अपनी जमीन अपना घर आंगन छोड़ दूर कहीं चला आया हो।


पहाड़ से होता यही पलायन वाद मजबूर करता है, पहाड़ को उस दूसरी दृष्टि से देखने के लिये जो सच्चाई के धरातल से जुड़ा है। अपने पहाड़ में एक कहावत है, “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नही रूकती“। ये सिर्फ एक कहावत नही पहाड़ का सच है, क्योंकि पानी नदियों के रास्ते नीचे मैदानों में चला जाता है और जवानी यानि कि नवयुवक और नवयुवतियां रोजगार की तलाश में पहाड़ से दूर चले जाते हैं। पहाड़ के दूर दराज गांवों में तो हालात और भी चिंताजनक हैं और यह तब है जब हमें आजादी मिले लगभग ६० साल तो हो ही गये हैं। इन गांवों से ज्यादातर युवक भारतीय सेनाओं में भर्ती होकर चले जाते हैं रह जाती है महिलायें, बच्चे और बूढ़े। पहाड़ी शहरों में भी ऐसे कोई उधोग धंधे नही जो युवाओं को रोक सके, जिंदगी की सच्चाई के सामने पहाड़ का प्यार ज्यादा दिनों तक टिक नही पाता। लेकिन दूर जाने पर भी एक पहले प्यार की तरह यह प्यार आखिरी वक्त तक दिल में बसा रहता है।


यही प्यार उन लोगों से दूर जाने के बाद भी पहाड़ के लिये कुछ ना कुछ करवाता रहता है, और पहाड़ इस आस में खामोश खड़ा इंतजार करता रहता है अपने बच्चों का शायद एक दिन कहीं वो वापस लौटें और मुझे ना पा कहीं फिर से वापस ना चले जायें। पहाड़ों में शायद यही आवाज अब भी गूँजती रहती है , “वादियां मेरा दामन, रास्ते मेरी बाहें जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे”।


अगर आप अभी तक कभी म्यार पहाड़ में नही आये तो आओ (जाओ) और थोडा सा मेरे पहाड़ का ठंडा पानी तो कम से कम पी लो इन गीतों के मार्फत। ये दो लोकगीत सुनिये, पहला है “पी जाओ पी जाओ” गोपाल बाबू गोस्वामीजी की आवाज में (कुमाँउनी बोली में) और दूसरा है “ठंडो रे ठंडो” नरेन्द्र सिंह नेगीजी की आवाज में (गढ़वाली बोली में)।

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