Friday 31 July 2015

वो भांगे की चटनी, वो नौले का पानी



जगजीत सिंह की गायी मशहूर गजल से २-३ लाईनें उधार लेकर अपने बचपन की यादों को इस गीत गजल में समेटने की कोशिश की है। आज ऐसे ही कुछ सफाई कर रहा था तो २-३ साल पहले लिखी ये गजल मुझे मिल गयी। पहाड़ों में बिताये उन अनमोल पलों को समेटने की कोशिश जो अब सिर्फ यादों में ही सिमट के रह गये हैं।

इसमें उपयोग में लाये गये कई शब्दों के शाब्दिक अर्थ शायद सबके समझ ना आये क्योंकि वो पहाड़ की संस्कृति से जुड़े हैं, इसलिये ऐसे कुछ शब्दों का अर्थ और भाव गजल के अंत में मैंने दिया है।


ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझ से मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो, भांगे की चटनी
वो सना हुआ नींबू, वो नौले का पानी।

वो आमा के खेतों में चुपके से जाना
वो आड़ू चुराना और फिर भाग आना
वो जोश्ज्यू के घर में अंगूर खाना
वो दाड़िम के दाने से चटनी बनाना
भूलाये नही भूल सकता ‘तरूण’ मैं
वो मासूम सा बचपन और उसकी कहानी।

वो पीतल के गिलास में चाय सुड़काना
वो डूबके, वो कापा और रसभात खाना
वो होली की गुजिया, वो भांग की पकौड़ी
पत्ते में लिपटी वो मीठी सिंगौड़ी
छूटा वो सब पीछे अब यादें बची हैं
ना है अब वो बचपन ना उसकी निशानी।

वो काला सा कौवा और उसको बुलाना
वो डमरू, वो दाड़िम वो तलवार को खाना
फूलदेई में सबके घरों में जाकर
घरों की देली को फूलों से सजाना
बेतरतीब से खुद के कपड़े थे रहते
भीगने को जाते जब बरसता था पानी।

होली में एक घर में चीर को लगाना
वो गुब्बारे, हुलियार और होली का गाना
वो चितई का मंदिर और मोष्टमानो का मेला
ना थी कोई चिंता, ना ही झमेला
ना दुनिया का गम था, ना रिश्तों का बंधन
बड़ी खुबसूरत थी वो जिंदगानी।

हिसालू, काफल और किलमोडी खाना
दिवाली में फूलों की माला बनाना
वो क्रिकेट का खेला जब हों खेत बंजर
बो भुट्टों की फुटबाल, कागज का खंजर
अब है झिझक कुछ करने ना देती
गया अब वो बचपन और ढलती जवानी।

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो…

कुछ शब्दों के भाव/अर्थ:

नौलाः पानी का प्राकृतिक स्रोत
भांगः ये दरअसल बीज होता है जिसकी बहुत स्वादिष्ट चटनी बनती है, अपने को बहुत प्रिय है
सना हुआ नीबूः जाड़ों के वक्त घर की छतों में धूप में बैठकर बड़ा नीबू, मूली, संतरा, दही, नमक, भांगा वगैरह मिलाकर बनाया जाता है
हुलियारः होली गाने वाले प्रोफेशनल
फूलदेईः पहाड़ों का एक प्रसिद्ध त्यौहार जिसमें बच्चे घर घर जाकर घर की एंट्रेस में फूल और चावल डालते हैं
सिंगौड़ीः अल्मोड़े की प्रसिद्ध स्वादिष्ट मिठाई जो पत्ते में लपेट के दी जाती है
डूबके, कापा, रसभातः पहाड़ी व्यंजन
सुड़कानाः जोर जोर से आवाज करके चाय पीना
दाड़िमः अनार की तरह का ही फल लेकिन छोटे रूप में

मकर संक्रान्तिः घुघुतिया और मेले ही मेले

जनवरी माह में उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति, दक्षिण में पोंगल और पंजाब में लोहड़ी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर में उत्तराखंड में एक अलग ही नजारा देखने को मिलता है, कुमाँऊ में अगर आप मकर संक्रान्ति में चले जायें तो आपको शायद कुछ ये सुनायी पड़ जाय -


काले कौव्वा, खाले,
ले कौव्वा पूड़ी,
मैं कें दे (ठुल-ठुलि या भल-भलि, ऐसा ही कुछ है ठीक से याद नही),
ले कौव्वा ढाल,
दे मैं कें सुणो थाल,
ले कौव्वा तलवार,
बणे दे मैं कें होश्यार।

साथ में दिखायी देंगे गले में तलवार, ढाल, दाड़िम का फूल, डमरु, खजूर, घुघुति और नारंगी की माला पहने हुए छोटे-छोटे बच्चे (इसी का जिक्र मैने अपनी पिछली पोस्ट की गजल में किया था)। पहले मकर संक्रान्ति के महत्व के बारे में जानते हैं फिर बताते हैं कि इस अवसर पर उत्तराखंड में क्या रौनक रहती है।

मकर संक्रान्ति का महत्व
शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य (भगवान) अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते हैं। अब ज्योतिष के हिसाब से शनिदेव हैं मकर राशि के स्वामी, इसलिये इस दिन को जाना जाता है मकर संक्रांति के नाम से। सर्वविदित है कि महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही दिन चुना। यही नही, कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। यही नही इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करते हैं, उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है। इसलिए इस दिन जप- तप, दान-स्नान, श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी भी मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है।

मकर संक्रान्ति के दिन से ही माघ महीने की शुरूआत भी होती है। मकर संक्रान्ति का त्यौहार पूरे भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन देश के अलग अलग हिस्सों में ये त्यौहार अलग-अलग नाम और तरीके से मनाया जाता है। और इस त्यौहार को उत्तराखण्ड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है। कुमाऊं क्षेत्र में यह घुघुतिया के नाम से भी मनाया जाता है तथा गढ़वाल में इसे खिचड़ी संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इस अवसर में घर घर में आटे के घुघुत बनाये जाते हैं और अगली सुबह को कौवे को दिये जाते हैं (ऐसी मान्यता है कि कौवा उस दिन जो भी खाता है वो हमारे पितरों (पूर्वजों) तक पहुँचता है), उसके बाद बच्चे घुघुत की माला पहन कर कौवे को आवाज लगाते हैं – काले कौव्वा काले, मेरी घुघुती खाले।

कुमाँऊ के गाँव-घरों में घुघुतिया त्यार (त्यौहार) से सम्बधित एक कथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी एक एक राजा का घुघुतिया नाम का कोई मंत्री राजा को मारकर ख़ुद राजा बनने का षड्यन्त्र बना रहा था लेकिन एक कौव्वे को ये पता चल गया और उसने राजा को इस बारे में सब बता दिया। राजा ने फिर मंत्री घुघुतिया को मृत्युदंड दिया और राज्य भर में घोषणा करवा दी कि मकर संक्रान्ति के दिन राज्यवासी कौव्वों को पकवान बना कर खिलाएंगे, तभी से इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा शुरू हुई।

यही नही मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के इस अवसर पर उत्तराखंड में नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं। इनमें दो प्रमुख मेले हैं – बागेश्वर का उत्तरायणी मेला (कुमाँऊ क्षेत्र में) और उत्तरकाशी में माघ मेला (गढ़वाल क्षेत्र में)।

बागेश्वर का उत्तरायणी मेला
इतिहास कारों की अगर माने तो माघ मेले यानि उत्तरायणी मेले की शुरूआत चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल से हुई, चंद राजाओं ने ही ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये। यही ही नही शिव की इस भूमि में उस वक्त कन्यादान नहीं होता था।

पुराने जमाने से ही माघ मेले के दौरान लोग संगम पर नहाने थे और ये स्नान एक महीने तक होते थे। यहीं बहने वाली सरयू नदी के तट को सरयू बगड़ भी कहा जाता है। इसी सरयू के तट के आस-पास दूर-दूर से माघ स्नान के लिए आने वाले लोग छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे। तब रोड वगैरह नही होती थी तो दूर-दराज के लोग स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल ही चलकर आते। पैदल चलने की वजह से महीनों पूर्व ही कौतिक (मेला) के लिये चलने का क्रम शुरु होता। धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के लिये जाने की प्रसन्नता में हुड़के की थाप भी सुनायी देने लगी फलस्वरुप मेले में लोकगीतों और नृत्यों की महफिलें जमनें लगी। प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती, कँपकँपाती सर्द रातों में अलाव जलाये जाते और इसके चारों ओर झोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का मंजर देखने को मिलता। दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचरी होती, नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते। सबके अपने-अपने नियत स्थान थे, नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता।

धीरे-धीरे धार्मिक और सांस्कृतिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया, भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार करते। तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते। भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते, नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें। स्थानीय व्यापारी भी अपने-अपने सामान को लाते, दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था। गुड़ की भेली और मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती, माघ मेला तब डेढ़ माह चलता। दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता।

उत्तरकाशी का माघ मेला
उत्तरकाशी में माघ मेला काफी समय से मनाया जा रहा है ये धार्मिक, सांस्कृति तथा व्यावसायिक मेले के रूप में प्रसिद्ध है। इस मेले का शुभारंभ प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन पाटा-संग्राली गांवों से कंडार देवता और अन्य देवी देवताओं की डोलियों के उत्तरकाशी पहुंचने से होता है। यह मेला 14 जनवरी (मकर संक्राति) से प्रारम्भ हो कर 21 जनवरी तक चलता है। इस मेले में जिले के दूर दराज से धार्मिक प्रवृत्ति के लोग जहाँ भागीरथी नदी में स्नान के लिये आते है। वहीं सुदूर गांव के ग्रामवासी अपने-अपने क्षेत्र से ऊन एवं अन्य हस्तनिर्मत उत्पादों को बेचन के लिये भी इस मेले में आते है। इसके अतिरिक्त प्राचीन समय में यहाँ के लोग स्थानीय जडी-बूटियों को भी उपचार व बेचने के लिये लाते थे लेकिन सरकार ने अब इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।

उत्तरकाशी बाबा विश्वनाथ जी की नगरी के रूप में भी प्रसिद्ध है इसलिये कई शिव भक्त भी दूर दूर से इस मेले में हिस्सा लेने आते हैं। वर्तमान काल में यह मेला धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारणों के अलावा पर्यटक मेले के रूप में भी अपनी पहचान बना रहा है। यही वजह है कि आजकल के दौर में इस मेले में सर्कस वगैरह भी देखने को मिलता है। यही नही साल के उस महीने में होने के कारण जब इस क्षेत्र में अत्यधिक बर्फ रहती है पर्यटन विभाग ने दयारा बुग्याल को स्कीइंग सेंटर के रूप में विकसित कर इस क्षेत्र को पर्यटन के लिये भी प्रचारित किया है।

अंत में, सबै भै बैणियों के मकर संक्रान्तिक ढेर सारि मुबारकवाद -


काले कौवा काले , घुघुति बड़ा खाले,
लै कौवा बड़ा, आपू सबुनै के दिये सुनक ठुल ठुल घड़ा,
रखिये सबुने कै निरोग, सुख सम़ृद्धि दिये रोज रोज।

अर्थात, सभी भाई बहिनों को मकर संक्रान्ति की बहुत बहुत बधाई -


काले कौवा आकर घुघुति (इस दिन के लिये बनाया गया पकवान) बड़ा (उड़द का बना हुआ पकवान) खाले,
ले कौव्वे खाने को बड़ा ले, और सभी को सोने के बड़े बड़े घड़े दे,
सभी लोगों को स्वस्थ्य रख, हर रोज सुख और समृद्धि दे।

कुमाँऊनी गीतः रंगीली चंगीली पुतई कैसी



सुबह हो चली है और श्रीमतिजी हैं कि उठने का नाम ही नही ले रही तो मोहतरमा को उठाने के लिये उसके सौन्दर्य की तुलना कभी तितली से की जा रही है तो कभी काकड़ यानि ककड़ी (खीरा) के फूल से। दिन इतना चढ़ चुका है कि गाय-बछड़े भी भूख से बेहाल हो कर आवाज करने लगे हैं। इतना ही नही आसपास की पहाड़ियों से घास काटने के लिये गयी औरतों (घस्यारिनें) की दरातियों के खनकने के स्वर भी सुनायी देने लगे हैं। अरे मेरी नारंगी की दाने जैसे अब तो उठ जा। चल ज्यादा नखरे दिखाना छोड़ के बिस्तर को छोड़ बाहर आजा और गरमा गरम चाय के मजे ले जो मैं तेरे लिये बनाकर लाया हूँ। अरे मेरी पूर्णमासी की चाँद खर्राटे मारना छोड़ और गुड़ के साथ चाय का लुत्फ उठा।

इतनी मिन्नतें और बीबी की शान में कसीदें गड़े जा रहे हैं एक पतिनुमा प्राणी द्वारा, अब आप ही बताओ इतनी मिन्नत भी भला किसी ने की है कभी अपनी श्रीमति को नींद से जगाने की।


रंगीली चंगीली पुतई कैसी, फुल फटंगां जून जैसी, काकड़े फुल्युड़ कैसी ओ मेरी किसाणा
उठ सुआ उज्याउ हैगो, चम चमको घामा, उठ सुआ उज्याउ हैगो, चम चमको घामा
रंगीली चंगीली पुतई कैसी, फुल फटंगां जून जैसी, काकड़े फुल्युड़ जैसी ओ मेरी किसाणा
उठ सुआ उज्याउ हैगो, चम चमको घामा, उठ सुआ उज्याउ हैगो, चम चमको घामा

गोरू बाछा अड़ाट लैगो भुखै गोठ पाना, गोरू बाछा अड़ाट लैगो भुखै गोठ पाना
तेरि नीना बज्यूण हैगे, उठ वे चमाचम, तेरि नीना बज्यूण हैगे, उठ वे चमाचम
घस्यारूं दातुली खणकि, घस्यारू दातुली खणकि, वार पार का डाना,
उठ मेरी नांरिंगे दाणी, उठ वे चमाचम, उठ मेरी नांरिंगे दाणी, उठ वे चमाचम

उठ भागी नाखर ना कर, पली खेड़ खाताड़ा, उठ भागी नाखर ना कर, पली खेड़ खाताड़ा
ले पिले चहा गिलास गरमा गरम, ले पिले चहा गिलास गरमा गरम
उठे मेरी पुन्यू की जूना, उठे मेरी पुन्यू की जूना, छोड़ वे घुर घूरा
ले पिले चहा घुटुकी, गुड़ को कटका, ले पिले चहा घुटुकी, गुड़ को कटका

रंगीली चंगीली पुतई कैसी, फुल फटंगां जून जैसी, काकड़े फुल्युड़ कैसी ओ मेरी किसाणा
उठ सुआ उज्याउ हैगो, चम चमैगो घामा

म्यार पहाड़







अगर मेरा गांव मेरा देश हो सकता है तो म्यार पहाड़ क्यों नही? म्यार पहाड़ यानि मेरा पहाड़ लेकिन ऐसा कहने से ये सिर्फ मेरा होकर नही रह जाता ये तो सब का है वैसे ही जैसे मेरा भारत हर भारतवासी का भारत। खैर पहाड़ को आज दो अलग अलग दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं, एक कल्पना के लोक में और दूसरा सच्चाई के धरातल में।


जिनकी नई-नई शादियां होती हैं हनीमून के लिये उनमें ज्यादातर की पहली या दूसरी पसंद होती है कोई हिल स्टेशन। बच्चों की गर्मियों की छुट्टी होती है उनकी भी पहली या दूसरी पसंद होता है कोई हिल स्टेशन, अब बूढ़े हो चले हैं धर्म कर्म करने मन हो चला है तो भी याद आता है म्यार पहाड़ चार धाम की यात्रा के लिये।


पहाड़ की खूबसूरती होती ही ऐसी है कि किसी को भी बरबस अपनी तरफ आकर्षित कर ले, वो ऊंची ऊंची पहाड़ियाँ, सर्दियों में बर्फ से ढकी वादियाँ, पहाड़ों को चुमने को बेताब दिखते बादल, मदमस्त किसी अलहड़ सी भागती पहाड़ी नदियां, सांप की तरह भागती हुई दिखायी देती सड़कें, कहीं दिखायी देते वो सीढ़ीनुमा खेत तो कहीं दिल को दहला देनी वाली घाटियां, जाड़ों की गुनगुनी धूप और गर्मियों की शीतलता। शायद यही सब है जो लोगों को अपनी और खिंचता है, बरबस उन्हें आकर्षित करता है अपने तरफ आने को।


लेकिन पहाड़ में रहने वाले के लिये, एक पहाड़ी के लिये ये शायद रोज की ही बात हो उसका जुड़ाव पहाड़ से तो कुछ जुदा ही है। ये जुड़ाव मुखर हो उठता है पहाड़ से जुदा होते ही नराई के बहाने, बकौलकाकेश -


मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने का निठल्ला चिंतन। ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है ना ही मेरा सौन्दर्यबोध, मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल है ,मिट्टी की सौंधी महक है , ‘हिसालू’ के टूटे मनके है , ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं , ‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है , ‘घौत’ की दाल है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको बारामासा’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है , ‘पालक का कापा’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है।


मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह को ढाल बनाकर लड़ रहा है. लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-मारखां समझने लगता है।


पहाड़, शिव की जटा से निकली हुई गंगा है, कालिदास का अट्टाहास है, पहाड़ सत्य का प्रतीक है, जीवन का साश्वत सत्य है। कठिन परिस्थितियों में भी हँस हँस कर जीने की कला सिखाने वाली पाठशाला है. गाड़, गध्यारों और नौले का शीतल, निर्मल जल है, तिमिल के पेड़ की छांह है, बांज और बुरांस का जंगल है, आदमखोर लकड़बग्घों की कर्मभूमि है। मिट्टी में लिपटे, सिंगाणे के लिपोड़े को कमीज की बांह से पोछ्ते नौनिहालों की क्रीड़ा-स्थली है। मोव (गोबर) की डलिया को सर में ले जाती महिला की दिनचर्या है, पिरूल सारती, ऊंचे ऊंचे भ्योलों में घास काटती औरत का जीवन है।


कैसे भूल सकता है कोई ऎसे पहाड़ को, पहाड़ तूने ही तो दी थी मुझे कठोर होकर जीवन की आपाधापियों से लड़ने की शिक्षा। कैसे भूल सकता हूँ मैं असोज के महीने में सिर पर घास के गट्ठर का ढोना, असोज में बारिश की तनिक आशंका से सूखी घास को सार के फटाफट लूटे का बनाना, फटी एड़ियों को किसी क्रैक क्रीम से नहीं बल्कि तेल की बत्ती से डामना फिर वैसलीन नहीं बल्कि मोम-तेल से उन चीरों को भरना, लीसे के छिलुके से सुबह सुबह चूल्हे का जलाना, जाड़े के दिनों में सगड़ में गुपटाले लगा के आग का तापना , “भड्डू” में पकी दाल के निराले स्वाद को पहचानना. तू शिकायत कर सकता है पहाड़ ..कि भाग गया मैं, प्रवासी हो गया, भूल गया मैं ….लेकिन तुझे क्या मालूम अभी भी मुझे इच्छा होती है “गरमपानी” के आलू के गुटके और रायता खाने की. अभी भी होली में सुनता हूँ ‘तारी मास्साब’ की वो होली वाली कैसेट …अभी भी दशहरे में याद आते है “सीता का स्वय़ंबर” , “अंगद रावण संवाद”, “लक्ष्मण की शक्ति” . अभी भी ढूंढता हूँ ऎपण से सजे दरवाजे और घर के मन्दिर .अभी भी त्योहार में बनते हैं घर में पुए , सिंघल और बड़े. कहाँ भूल पाऊंगा मैं वो “बाल मिठाई” और “सिंघोड़ी”, मामू की दुकान के छोले और जग्गन की कैंटीन के बिस्कुट।


तेरे को लगता होगा ना कि मैं भी पारखाऊ केबड़बाज्यू की तरह गप मारने लगा लेकिन सच कहता हूं यार अभी भी जन्यू –पून्यू में जनेऊ बदलता हूं, चैत में “भिटोली” भेजता हूं, घुघुतिया ऊतरैणी में विशेष रूप से नहाता हूं ( हाँ काले कव्वा ,काले कव्वा कहने में शरम आती है ,झूठ क्यूं बोलूं ), तेरी बोजी मुझे पिछोड़े और नथ में ही ज्यादा अच्छी लगती है .मंगल कार्यों में यहाँ परदेश में “शकुनाखर” तो नहीं होता पर जोशी ज्यू को बुला कर दक्षिणा दे ही देता हूं .


तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा.. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं .तू बुरा तो नहीं मानेगा ना ..मैं आऊंगा तेरे पास . गोलज्यू के थान पूजा दूंगा ..नारियल ,घंटी चढाऊंगा .. बाहर से जरूर बदल गया हूँ पर अंदर से अभी भी वैसा ही हूँ रे ..तू फिकर मत करना हाँ..


ये भावनायें हर उस पहाड़ी की है जिसके रोम रोम में पहाड़ रचा बसा है, और ये नराई अकेले काकेश की नराई नही है ये उन सब पहाड़ियों की नराई है जो पहाड़ से बहुत दूर चले आये हैं। काकेश का ये कहना कि भाग गया मैं, प्रवासी हो गया साथ ही अपने और पहाड़ को सांत्वना देता “मैं आऊंगा तेरे पास कहना” हर उस पहाड़ी के दिल से निकलती आवाज है जो पहाड़ से दूर जिंदगी की जद्दोजहद में उलझा हुआ है और एक बेहतर जीवन की लालसा में पहाड़ से दूर होता जा रहा है। शायद ये हर उस व्यक्ति का सच है जो अपनी जमीन अपना घर आंगन छोड़ दूर कहीं चला आया हो।


पहाड़ से होता यही पलायन वाद मजबूर करता है, पहाड़ को उस दूसरी दृष्टि से देखने के लिये जो सच्चाई के धरातल से जुड़ा है। अपने पहाड़ में एक कहावत है, “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नही रूकती“। ये सिर्फ एक कहावत नही पहाड़ का सच है, क्योंकि पानी नदियों के रास्ते नीचे मैदानों में चला जाता है और जवानी यानि कि नवयुवक और नवयुवतियां रोजगार की तलाश में पहाड़ से दूर चले जाते हैं। पहाड़ के दूर दराज गांवों में तो हालात और भी चिंताजनक हैं और यह तब है जब हमें आजादी मिले लगभग ६० साल तो हो ही गये हैं। इन गांवों से ज्यादातर युवक भारतीय सेनाओं में भर्ती होकर चले जाते हैं रह जाती है महिलायें, बच्चे और बूढ़े। पहाड़ी शहरों में भी ऐसे कोई उधोग धंधे नही जो युवाओं को रोक सके, जिंदगी की सच्चाई के सामने पहाड़ का प्यार ज्यादा दिनों तक टिक नही पाता। लेकिन दूर जाने पर भी एक पहले प्यार की तरह यह प्यार आखिरी वक्त तक दिल में बसा रहता है।


यही प्यार उन लोगों से दूर जाने के बाद भी पहाड़ के लिये कुछ ना कुछ करवाता रहता है, और पहाड़ इस आस में खामोश खड़ा इंतजार करता रहता है अपने बच्चों का शायद एक दिन कहीं वो वापस लौटें और मुझे ना पा कहीं फिर से वापस ना चले जायें। पहाड़ों में शायद यही आवाज अब भी गूँजती रहती है , “वादियां मेरा दामन, रास्ते मेरी बाहें जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे”।


अगर आप अभी तक कभी म्यार पहाड़ में नही आये तो आओ (जाओ) और थोडा सा मेरे पहाड़ का ठंडा पानी तो कम से कम पी लो इन गीतों के मार्फत। ये दो लोकगीत सुनिये, पहला है “पी जाओ पी जाओ” गोपाल बाबू गोस्वामीजी की आवाज में (कुमाँउनी बोली में) और दूसरा है “ठंडो रे ठंडो” नरेन्द्र सिंह नेगीजी की आवाज में (गढ़वाली बोली में)।

अल्‍मोड़ा







प्रकृति के मनोहारी द्रश्‍यों से भरपूर उत्तरांचल का एक खुबसूरत जिला अल्‍मोड़ा, सुन्‍दर पहाड़, घने जंगल, खुबसूरत वादियां, साफ सुथरी झीलें, कल-कल करती नदियाँ, पुरातन सांस्‍कृतिक प्रभाव यही सब अल्‍मोड़ा को भारत का स्‍वीटजरलैण्‍ड कहे जाने के लिये विवश करता है। यहाँ से हिमालय का शानदार द्रश्‍य बड़ा ही मनोहारी दिखायी देता है, अगर हिमालय छूने की तमन्‍ना हो तो बस पहुँच जाईये कौसानी।


अल्‍मोड़ा पुराने जमाने में चंद राजवंश की राजधानी थी, ये क्षेत्र कत्‍यूरी राजा बयचलदेव की हुकूमत के अंदर आता था, जिसे उन्‍होने एक गुजराती ब्राह्रमण श्री चंद तिवारी को दान में दे दिया था। और फिर १५६० में चंद राज्‍य के कल्‍यान चंद ने अपनी राजधानी चम्‍पावत से अल्‍मोड़ा विस्‍थापित कर दी। यह शहर घोड़े की काठी के आकार की लगभग ६ किमी. लम्‍बी पहाड़ी पर बसा है। तेजी से बड़ता भवन निर्माण, उसके चलते तेजी से कटते पेड़ धीरे-धीरे कहीं इस शहर की सुंदरता भी कम ना कर दें।


उपयुक्त मौसमः साल भर लोकल हस्तशिल्पः ऊनी – माल रोड; तांबे का काम – टमटा मोहल्‍ला सामान्‍य ज्ञानः क्षेत्रफल – ११.९ वर्ग किमी. (शहरी) समुद्र से ऊँचाई – १६४६ मीटर (५४०० फीट) तापमान – ४.४ से २९.४ डिग्री सेंटीग्रेट वस्त्र – गरमियों में सूती या हल्‍के ऊनी, जाड़ों में भारी ऊनी भाषा – हिन्‍दी, कुमाऊंनी और इंग्‍लिश (अंग्रेजी)


घूमने के स्‍थानः

चितई मंदिर – शहर से आठ किमी दूर गोलू देवता का एक मंदिर, गौर भैरव का अवतार, यह प्रसिद्व है सचे मन से मांगी मुराद पूरी करने के लिये बदले में मांग पूरी होने पर मंदिर के प्रांगण में एक घंटी लटकाने का वचन। इस मंदिर में चारों तरफ सिर्फ घंटियां ही दिखायी देती हैं। आप चाहें तो इन देवता को पत्र भी लिख सकते हैं, इनकी मूर्ति के साथ रखे पत्रों का ढेर आप मंदिर में देख सकते हैं।

कटारमल का सूर्य मंदिर – शहर से १० किमी दूर स्‍थित, भारत के सबसे पुराने सूर्य मंदिर में से एक

गणनाथ मंदिर – ४७ किमी दूर, एक शिव मंदिर, वहाँ प्राकृतिक गुफायें भी हैं

कौसानी – प्राकृतिक रूप से अति सुंदर, बर्फ से ढके पहाड़ यहाँ से बहुत ही पास लगते हैं, महात्‍मा गाँधी यहाँ १९२९ में आये, गीता-अनाशक्‍ति योग पर अपनी टीका-टिप्पणी उन्‍होंने यहीं अनाशक्‍ति आश्रम में लिखी। हिन्‍दी और प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रा नंदन पंत की जन्‍मस्‍थली।

जागेश्‍वर – पिथौरागढ़ जाने के रास्‍ते में शहर से ३८ किमी दूर (मुख्‍य मार्ग से थोड़ा हटकर), ऐसा माना जाता है कि भारत में स्‍थित १२ ज्‍योतिर्लिंगों (स्‍वयंभू लिंग नागेश) में से एक है, शिवरात्री और श्रावण के महीने में यहाँ मेला लगता है। इस मंदिर के प्रांगण में कुल १२४ छोटे मंदिर और मूर्तियाँ हैं।


अल्‍मोड़ा शहर में ही छोटे बड़े बहुत मंदिर हैं। इस शहर की ३ चीजें बहुत प्रसिद्व हैं – बाल, माल और पटाल। बाल यानि कि बाल मिठाई, माल रोड और पटाल एक तरह का स्‍लेटी पत्‍थर जो शहर की सीढ़ियों, रोड और घरों की छत बनाने में उपयोग में आता है (था)। इस शहर में घूमना हो तो हर वक्‍त सीढ़ियां चढ़ने ऊतरने के लिये हरदम तैयार रहना, क्‍योंकि आप शहर में कहीं भी जायें इन से बच नही सकते।


कैसे पहुँचें: हवाई जहाज से – नजदीकी हवाई अड्डा पंतनगर (१२७ किमी)

रेल मार्ग – नजदीकी रेलवे स्‍टेशन काठगोदाम (९० किमी), लखनऊ, देहली, कलकत्ता जैसे शहरों से रेल से जुड़ा है

सड़क मार्ग – देहली-मुरादाबाद-रामपुर-हल्‍द्वानी-काठगोदाम-भवाली-गरम पानी-अल्‍मोड़ा (३८२ किमी)

प्रमुख शहरों से दूरीः लखनऊ (४६६ किमी), देहरादून (४१२ किमी), नैनीताल (७१ किमी), बरेली (२०५ किमी), पिथौरागढ़ (१२२ किमी), हरिद्वार (३५७ किमी), हल्‍द्वानी (९६ किमी), रानीखेत (५० किमी), बागेश्‍वर (९० किमी)

कुमाँऊ का संक्षिप्त इतिहास


कुमाँऊ शब्द की उत्पत्ति कुर्मांचल से हुई है जिसका मतलब है कुर्मावतार (भगवान विष्णु का कछुआ रूपी अवतार) की धरती। कुमाँऊ मध्य हिमालय में स्थित है, इसके उत्तर में हिमालय, पूर्व में काली नदी, पश्चिम में गढ‌वाल और दक्षिण में मैदानी भाग। इस क्षेत्र में मुख्यतया ‘कत्यूरी’ और ‘चंद’ राजवंश के वंशजों द्धारा राज्य किया गया। उन्होंने इस क्षेत्र में कई मंदिरों का भी निर्माण किया जो आजकल सैलानियों (टूरिस्ट) के आकर्षण का केन्द्र भी हैं। कुमाँऊ का पूर्व मध्ययुगीन इतिहास ‘कत्यूरी’ राजवंश का इतिहास ही है, जिन्होंने 7 वीं से 11 वीं शताब्दी तक राज्य किया। इनका राज्य कुमाँऊ, गढ‌वाल और पश्चिम नेपाल तक फैला हुआ था। अल्मोड‌ा शहर के नजदीक स्थित खुबसूरत जगह बैजनाथ इनकी राजधानी और कला का मुख्य केन्द्र था। इनके द्धारा भारी पत्थरों से निर्माण करवाये गये मंदिर वास्तुशिल्पीय कारीगरी की बेजोड‌ मिसाल थे। इन मंदिरों में से प्रमुख है ‘कटारमल का सूर्य मंदिर’ (अल्मोडा शहर के ठीक सामने, पूर्व के ओर की पहाड‌ी पर स्थित)। 900 साल पूराना ये मंदिर अस्त होते ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के वक्त बनवाया गया था।


कुमाँऊ में ‘कत्यूरी’ साम्राज्य के बाद पिथौरागढ‌ के ‘चंद’ राजवंश का प्रभाव रहा। जागेश्वर का प्रसिद्ध शिव मंदिर इन्ही के द्धारा बनवाया गया था, इसकी परिधि में छोटे बड‌े कुल मिलाकर 164 मंदिर हैं।


ऐसा माना गया है कि ‘कोल’ शायद कुमाँऊ के मूल निवासी थे, द्रविडों से हारे जाने पर उनका कोई एक समुदाय बहुत पहले कुमाँऊ आकर बस गया। आज भी कुमाँऊ के शिल्पकार उन्हीं ‘कोल’ समुदाय के वंशज माने जाते हैं। बाद में ‘खस’ समुदाय के काफी लोग मध्य एशिया से आकर यहाँ के बहुत हिस्सों में बस गये। कुमाँऊ की ज्यादातर जनसंख्या इन्हीं ‘खस’ समुदाय की वंशज मानी जाती है। ऐसी कहावत है कि बाद में ‘कोल’ समुदाय के लोगों ने ‘खस’ समुदाय के सामने आत्मसमर्फण कर इनकी संस्कृति और रिवाज अपनाना शुरू कर दिया होगा। ‘खस’ समुदाय के बाद कुमाँऊ में ‘वैदिक आर्य’ समुदाय का आगमन हुआ। स्थानीय राजवंशों के इतिहास की शुरूआत के साथ ही यहाँ के ज्यादातर निवासी भारत के तमाम अलग अलग हिस्सों से आये ‘सवर्ण या ऊंची जात’ से प्रभावित होने लगे। आज के कुमाँऊ में ब्राह्मण, राजपूत, शिल्पकार, शाह (कभी अलग वर्ण माना जाता था) सभी जाति या वर्ण के लोग इसका हिस्सा हैं। संक्षेप में, कुमाँऊ को जानने के लिये हमेशा निम्न जातियों या समुदाय का उल्लेख किया जायेगा – शोक्य या शोक, बंराजिस, थारू, बोक्स, शिल्पकार, सवर्ण, गोरखा, मुस्लिम, यूरोपियन (औपनिवेशिक युग के समय), बंगाली, पंजाबी (विभाजन के बाद आये) और तिब्बती (सन् 1960 के बाद)।



6वीं शताब्दी (ए.डी) से पहले

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क्यूनीनदास या कूनीनदास


6वीं शताब्दी (ए.डी) के दौरान

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खस, नंद और मौर्य। ऐसी मान्यता है बिंदुसार के शासन के वक्त खस समुदाय द्धारा की गई बगावत अशोक द्धारा दबा दी गई। उस वक्त पुरूष प्रधान शासन माना जाता है। 633-643 ए.डी के दौरान यूवान च्वांग (ह्वेन-टीसेंग) के कुमाँऊ के कुछ हिस्सों का भ्रमण किया और उसने स्त्री राज्य का भी उल्लेख किया। ऐसा माना जाता है कि यह गोविशाण (आज का काशीपूर) क्षेत्र रहा होगा। कुमाँऊ के कुछ हिस्सों में उस वक्त ‘पौरवों’ ने भी शासन किया होगा।


6वी से 12वी शताब्दी (ए.डी)

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इस दौरान कत्यूरी वंश ने सारे कुमाँऊ में शासन किया। 1191 और 1223 के दौरान दोती (पश्चिम नेपाल) के मल्ल राजवंश के अशोका मल्ल और क्रचल्ला देव ने कुमाँऊ में आक्रमण किया। कत्यूरी वंश छोटी छोटी रियासतों में सीमित होकर रह गया।


12वी शताब्दी (ए.डी) से

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चंद वंश के शासन की शुरूआत। चंद राजवंश ने पाली, अस्कोट, बारामंडल, सुई, दोती, कत्यूर द्धवाराहाट, गंगोलीहाट, लाखनपुर रियासतों में अधिकार कर अपने राज्य में मिला ली।


1261 – 1275

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थोहर चंद


1344 – 1374 या 1360 – 1378

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अभय चंद। कुछ ताम्रपत्र मिले जो चंद वंश के अलग अलग शासकों से संबन्धित थे लेकिन शासकों के नाम का पता नही चल पाया।


1374 – 1419 (ए.डी)

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गरूड़ ज्ञानचंद


1437 – 1450 (ए.डी)

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भारती चंद


1565 – 1597 (ए.डी)

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रूद्र चंद


1597 – 1621 (ए.डी)

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लक्ष्मी चंद। चंद शासकों के दौरान नये शहरों की स्थापना और इनका विकास भी हुआ जैसे रूद्रपुर, बाजपुर, काशीपुर।


1779 – 1786 (ए.डी)

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कुमाँऊ के परमार राजकुमार, प्रद्धयुमन शाह ने प्रद्धयुमन चंद के नाम से राज्य किया और अंततः गोरखाओं के साथ खुरबुरा (देहरादून) के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ।


1788 – 1790 (ए.डी)

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महेन्द्र सिंह चंद, ऐसा माना जाता है कि यह चंद वंश का अंतिम शासक था। जिसने राजबुंगा (चंपावत) से शासन किया लेकिन बाद में अल्मोड‌ा से किया।


1790 – 1815 (ए.डी)

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कुमाँउ में गोरखाओं का राज्य रहा। गोरखाओं के निर्दयता और जुल्म से भरपूर शासन में चंद वंश के शासकों का पूरा ही नाश हो गया।


1814 – 1815 (ए.डी)

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नेपाल युद्ध। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने गोरखाओं को पराजित कर कुमाऊँ में राज्य करना शुरू किया।



यदपि ब्रिटिश राज्य गोरखाओं (जिसको गोरख्योल कहा जाता था) से कम निर्दयता पूर्ण और बेहतर था लेकिन फिर भी ये विदेशी राज्य था। लेकिन फिर भी ब्रिटिश राज्य के दौरान ही कुमाँऊ में प्रगति की शुरूआत भी हुई। इसके बाद, कुमाँऊ में भी लोग विदेशी राज्य के खिलाफ उठ खड‌े हुए।

कब-कब लगता है कुंभ मेला



कुंभ का आयोजन प्रत्येक बारह साल में चार बार किया जाता है यानी मेला हर तीन साल में एक बार चार अलग-अलग स्‍थानों पर लगता है। अर्द्धकुंभ मेला प्रत्येक छह साल में हरिद्वार और प्रयाग में लगता है जबकि पूर्णकुंभ हर बारह साल बाद केवल प्रयाग में ही लगता है।




इलाहाबाद का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में भी मिलता है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहाँ संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए इस शहर का विशेष महत्त्व है। बारह पूर्ण कुंभ मेलों के बाद महाकुंभ मेला भी हर 144 साल बाद केवल इलाहाबाद में ही लगता है।


ज्योतिष महत्व

कुंभ मेला और ग्रहों का आपस में गहरा संबंध है। दरअसल, कुंभ का मेला तभी आयोजित होता है जबकि ग्रहों की वैसी ही स्थिति निर्मित हो रही हो जैसी अमृत छलकने के दौरान हुई थी। मान्यता है कि बूंद गिरने के दौरान अमृत और अमृत कलश की रक्षा करने में सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चंद्र ने कलश की प्रसवण होने से, गुरु ने अपहरण होने और शनि ने देवेंद्र के भय से रक्षा की।




सूर्य ने अमृत कलश को फूटने से बचाया। इसीलिए पुराणिकों और ज्योतिषियों के अनुसार जिस वर्ष जिस राशि में सूर्य, चंद्र और बृहस्पति या शनि का संयोग होता है उसी वर्ष उसी राशि के योग में जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी वहाँ कुंभ पर्व का आयोजन होता है।

कुंभ मेले में होने वाले स्नान



मकर संक्राति से प्रारम्भ होकर वैशाख पूर्णिमा तक चलने वाले महाकुम्भ में वैसे तो हर दिन पवित्र स्नान है फिर भी कुछ दिवसों पर ख़ास स्नान होते हैं। इसके अलावा तीन शाही स्नान होते हैं। ऐसे मौकों पर साधु संतों की गतिविधियाँ तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होती है। कुम्भ के मौके पर तेरह अखाड़ों के साधु-संत कुम्भ स्थल पर एकत्र होते हैं।




शाही स्नान में संघर्ष का इतिहास

इतिहास बताता है कि शाही स्नान के वक्त तमाम अखा़ड़ों एवं साधुओं के संप्रदायों के बीच मामूली कहासुनी भी खूनी संघर्ष के रूप में तब्दील हो जाती है। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसे कई मामले हुए हैं। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं।




वर्ष 1760 में शैव संन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुम्भ में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। 1927 में बैरीकेडिंग टूटने से काफी बड़ी दुर्घटना हो गई थी। वर्ष 1986 में भी दुर्घटना के कारण कई लोग हताहत हो गए। 1998 में हर की पौड़ी में अखाड़ों के बीच संघर्ष हुआ था। 2004 के अर्धकुंभ मेले में एक महिला से पुलिस द्वारा की गई छेडछाड़ ने जनता, खासकर व्यापारियों को सड़क पर संघर्ष के लिए मजबूर कर दिया, जिसमें एक युवक की मौत हो गई।

कुंभ मेले का इतिहास


कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। 

मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था।

कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।

राशियों और ग्रहों से कुंभ का संबंध
कुंभ मेला किसी स्थान पर लगेगा यह राशि तय करती है। वर्ष 2013 में कुंभ मेला प्रयाग ईलाहाबाद में लग रहा है। इसका कारण भी राशियों की विशेष स्थिति है। 

कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित हैं उसके अनुसार प्रयाग में कुंभ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है। यही संयोग वर्ष 2013 में 20 फरवरी को होने जा रहा है। 1989, 2001, 2013 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां 2025 में लगेगा। 

कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। 1986, 1998, 2010 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में 2021 में लगेगा। 
सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर लगता है। 1980, 1992, 2003 के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां 2015 में लगेगा। �

गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ लगता है। 1980,1992, 2004, के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां 2016 में लगेगा।� �

कुंभ में महत्वपूर्ण ग्रह 
कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है। सागर मंथन से जब अमृत कलश प्राप्त हुआ तब अमृत घट को लेकर देवताओं और असुरों में खींचा तानी शुरू हो गयी। ऐसे में अमृत कलश से छलक कर अमृत की बूंद जहां पर गिरी वहां पर कुंभ का आयोजन किया गया। 

अमृत की खींचा तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी। 

12 वर्ष नहीं हर तीसरे वर्ष लगता है कुंभ 
गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे 12 वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर 144 वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है। 

महाकुंभ के संबंध में मान्यता
शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। 

कभी पहाड़ी रसोईघरों की शान होता था 'भड्डू'


पिछले साल वरिष्ठ पत्रकार भाई त्रिभुवन उनियाल ने गांव आने का न्यौता दिया। उन्होंने गांव में कुछ दिन बिताने के लिये संक्षिप्त रूपरेखा भी तैयारी कर ली थी। इसका सार यही था कि बचपन की यादों को ताजा करना है। ''भड्डू में दाल बनाएंगे ..... तुमने भड्डू की दाल खायी होगी लेकिन एक बार मेरे हाथ से भड्डू में बनी दाल खाओगे तो फिर उंगलियां चाटते रहोगे। '' उनकी बातें सुनकर ही लार टपकने लग गयी थी। त्रिभुवन भाई के न्यौते पर अब तक उनके गांव नहीं जा पाया हूं। 
      पिछले दिनों कवि और वरिष्ठ पत्रकार गणेश खुगशाल 'ग​णी' यानि गणी भैजी अपना कविता संग्रह ''वूं मा बोलि दे'' भेंट कर गये। गढ़वाली में उनके इस कविता संग्रह में एक कविता 'भड्डू' पर भी पढ़ने को मिली। '' भड्डू, न त लमडु, न टुटु, न फुटु, पर जख गै होलु, स्वादी स्वाद रयूं ....।'' 
      और अब एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार और समाचार एजेंसी 'भाषा' में मेरे वरिष्ठ साथी विवेक जोशी जी की फेसबुक वाल पर 'भड्डू' के बारे में पढ़ा,  ''एक ज़माने में हर घर में भड्डू हुआ करता था ....जिसमें पका खाना स्वाद की पराकाष्ठा होती थी ..गढ़वाल में श्रीनगर की बस से जब में अल्मोड़ा आता तो ग्वालदम में बड़े बड़े भड्डुओं में पकी दाल खाता .....। इससे पुरानी यादें फिर से ताजा हो गयीं। 
चित्र में नीचे भड्डू है। इसके ऊपर लोटा रखा हुआ है। 
फोटो सौजन्य ​.. 
विवेक जोशी
           मां . पिताजी अब नहीं रहे। बड़ी चाचीजी और छोटे चाचाजी से 'भड्डू' को लेकर बात की। चाचीजी भावुक हो गयी, ''अब कहां वह स्वाद। भड्डू में बनी दाल बहुत स्वादिष्ट होती थी। अब तो बस कुकर में रखो, सीटी बजवाओ और खत्म। कुकर की दाल में भड्डू में बनी दाल का स्वाद थोड़े ही लाया जा सकता है। '' बड़ी भाभीजी ने भी भड्डू को लेकर अपनी यादें ताजा की, ''दादी कहती थी कि भड्डू में दाल रखी है, झैल (आंच) लगी रहनी चाहिए। ''
     भड्डू पीतल या कांसे का बर्तन होता है। कांसे की मोटी परत से बना बर्तन जिसका निचला हिस्सा चौड़ा और भारी जबकि ऊपरी हिस्सा संकरा होता है। पहाड़ों में कई सदियों से भड्डू का उपयोग दाल और मांस पकाने के लिये किया जाता रहा। इसमें दाल बनाने में समय लगता है। विवेक जोशी जी के शब्दों में, ''भड्डू हमें कई सन्देश देता है ...मसलन संयम क्योंकि ये आज का कुकर नहीं है ...साथ ही भड्डू आज की भागदौड की जिंदगी के विपरीत हमेशा फुर्सत के क्षणों का अहसास कराता था।''
     लेकिन तेजी से भागती जिंदगी ने भड्डू को पीछे छोड़ दिया। पहाड़ों के घरों में कुकर चमकने लगे और भड्डू किसी कोने में दम तोड़ने लगा। कथाकार और लेखक शिशिर कृष्ण शर्मा की कहानी, ''बंद दरवाजों का सूना महल'' में एक जगह लिखा है, ''सबसे ज्यादा ताज्जुब मुझे भड्डू को देखकर हुआ। भड्डू, याने कि काँसे का घड़ेनुमा बर्तन जिसका इस्तेमाल कभी पहाड़ों में दाल पकाने के लिए किया जाता था और जिसका तर्पण आम पहाड़ी रसोईघरों में प्रेशर कुकर की घुसपैठ के साथ दशकों पहले हो चुका था। वो ही भड्डू भुवन जी की रसोई में किसी प्रेत की भांति आज भी मौजूद था।''  
      भड्डू   छोटे . बड़े कई आकार का होता था। छोटा भड्डू परिवार के काम आता था तो बड़ा भड्डू गांव के। गांव में कोई शादी हो या अन्य कार्य बड़े भड्डू (गेडू या ग्याडा या टोखणी) में ही दाल बनती थी। बड़ा भड्डू या ग्याडा भी पंचायत के बर्तन होते थे। यदि किसी के पास ग्याडा होता था तो वह उसे पंचायत को दे देता था। पिछले दिनों चाचाजी ने बताया कि गांव के ग्याडा को उसके मूल मालिक के बेटे ने फिर से अपने पास रख दिया। सच कहूं तो अच्छा नहीं लगा क्योंकि उससे मेरी और मेरी पीढ़ी के कई मित्रों की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई हैं। वह इतना भारी था कि खाली होने पर भी दो व्यक्ति मिलकर ही उसे चूल्हे में रख पाते थे। उसमें पानी भी भरकर रखा जाता था। 

    
 बड़ा भड्डू यानि ग्याडा। पहाड़ में कहीं
इसे टोखणी भी कहा जाता है। 
 जिस परिवार में भड्डू होता था उसके पास इसे चूल्हे से उतारने के लिये संडासी भी होती थी। वैसे भड्डू को संडासी से निकालना हर किसी के वश की बात नहीं होती थी। आज भी पहाड़ के कई परिवारों के पास भड्डू होगा लेकिन इनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है। मेरी तो यही गुजारिश है कि यदि आपके परिवार में भड्डू है तो उसे कोने से निकालिए और फिर उसमें दाल बनाकर खाईये। यह स्वादिष्ट ही नहीं स्वास्थ्यवर्धक भी होगी। 
       भड्डू में दाल बनाने का तरीका भी अलग होता है। दाल बनाने से पहले इसके चारों तरफ राख को गीली करके उसका लेप लगाया जाता था और फिर इसमें दाल या गोश्त बनता था। लंबे समय तक शिक्षा विभाग से जुड़े रहे और प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत होने वाले श्री जीवनचंद्र जोशी ने विवेक जी की पोस्ट पर अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी, ''इन बर्तनों का रात में ही चूल्हे की राख से श्रृंगार भी कर दिया जाता था क्योंकि दूसरी सुबह फिर परिवार के लिए इन्हें अपनी ड्यूटी करनी पड़ती थी..।''
        भड्डू में अमूमन उड़द और राजमा की दाल ही बनायी जाती थी। इन दालों को रात में भिगोकर रख दो और सुबह इन्हें भड्डू में पकाओ। इसमें तेल, मसाले और नमक मिलाकर धीमी आंच पर भड्डू में अच्छी तरह से पकने दो और बाद में इसमें लाल मिर्च, जीरा, धनिया और यहां तक कि जख्या का तड़का लगा दो। भड्डू की बनी गरमागर्म दाल खाओगे तो फिर दुनिया के बड़े से बड़े 'सेफ' के हाथों की बनी दाल का स्वाद भी भूल जाओगे। 
       भड्डू पर मैं जितनी जानकारी जुटा सकता था। वह आपके सामने है। आप इसे अधिक समृद्ध कर सकते हैं। कृपया नीचे टिप्पणी वाले कालम में भड्डू पर अपनी जानकारी जरूर साझा करें। आपकी अमूल्य टिप्पणियों का इंतजार रहेगा। 

तिमला : पत्तों से लेकर फल तक सब उपयोगी




     तिमला या तिमिल। क्या आपने कभी खाया है इसका कच्चा या पक्का हुआ फल। अगर आपने पहाड़ों में कुछ भी दिन गुजारे होंगे तो जरूर इसके स्वाद से वाकिफ होंगे। मेरे घर के पास में तिमला के दो पेड़ थे। एक था जिस पर जड़ से लेकर आगे टहनी तक खूब सारे तिमला लगते थे। कई हम कच्चे ही खा जाते थे। इनकी सब्जी भी बन जाती थी। जब यह पक जाता था तो इसका स्वाद लाजवाब होता था। दूसरे पेड़ के तिमला, उनमें तो अक्सर कीड़ा ही लगा रहता था। इसलिए मैं कहता हूं कि तिमला दो तरह के होते हैं। असल में कुछ स्थानों या कुछ पेड़ों के फल पकते नहीं हैं और यदि वे पकते हैं तो उनके अंदर स्वादिष्ट रसीला पदार्थ नहीं बल्कि सूखा हुआ पदार्थ होता है जिसमें कीड़े लगे होते हैं। मैंने जिस दूसरे तिमला का जिक्र किया है वह इसी श्रेणी में आता है वैसे वनस्पति विज्ञानियों ने अब तक इसकी कुल पांच प्रजातियों का पता किया है।
   चलो अब आपको तिमला से अवगत करा दूं। पहाड़ों में इसे तिमला, तिमिल, ति​मली, तिरमल आदि नामों से जाना जाता है। तिमला का वान​स्पतिक नाम फाइकस आरिकुलाटा है। यह मोरासी प्रजाति का फल है, जिसमें गूलर भी शामिल है। तिमला मुख्य रूप से हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल और भू​टान में होता है। तिमला का पेड़ मध्यम आकार का होता है जिसमें जड़ से कुछ दूरी के बाद ही टहनियां निकलनी शुरू हो जाती हैं। इसके पत्ते काफी बड़े होते हैं। इस वजह से तिमला को अंग्रेजी में 'एलीफेंट इयर फिग' कहा जाता है। इसके इन पत्तों को, विशेषकर सर्दियों के समय में जब वे कोमल होते हैं, तब चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसकी पत्तियां काफी पौष्टिक होती हैं और इसलिए इन्हें दूध देने वाले पशुओं को खिलाया जाता है। कीड़े भी इसके पत्तों को काफी पसंद करते हैं। पहाड़ों में लंबे समय तक तिमला के साफ पत्तों से पत्तल बनायी जाती थी। अब भले ही शादी या अन्य किसी कार्य में 'माल़ू' के पत्तों से बने पत्तलों या फिर से प्लास्टिक या अन्य सामग्री से बने पत्तलों का उपयोग किया जा रहा है, लेकिन एक समय था जबकि पत्तल सिर्फ तिमला के पत्तों के बनाये जाते थे। इसके पत्तों को शुद्ध माना जाता है और इसलिए किसी भी तरह के धार्मिक कार्य में इनका उपयोग किया जाता है। अब भी धार्मिक कार्यों से जुड़े कई ब्राह्मण कम से कम पूजा में तिमला के पत्तों और उनसे बनी 'पुड़की' (कटोरीनुमा आकार) का उपयोग करना पसंद करते हैं।
    अब बात करते हैं तिमला के फल की। कहा जाता है कि इसमें फल नहीं आता लेकिन कुछ वनस्पति विज्ञानियों का मानना है कि इसका जो फल होता है असल में वह इसका फूल है। यह ऐसा फूल है जो चारों तरफ से बंद रहता था लेकिन इसके अंदर बीज होते हैं तथा कुछ छोटे कीट इसके अंदर जाकर परागण संपन्न करवाने और बीजों को पकाने में मदद करते हैं। तिमला के फल इसकी जड़ से ही लगना शुरू हो जाते हैं और हर टहनी पर लगे रहते हैं। । कई बार तो पेड़ तिमला से इतना लकदक बन जाता है कि सिर्फ इसके पत्ते और फल ही दिखायी देते हैं। इसका फल पहले हरा होता है जबकि पकने के बाद यह लाल या भूरा हो जाता है। इसके कच्चे फल की सब्जी बनती है। सब्जी बनाने लिये छोटे छोटे तिमलों का उपयोग किया जाता है। इनको दो हिस्सों में काटकर छांछ में भिगाने के लिये रख दो जिससे इससे निकलने वाला सफेद रस (चोप) पूरी तरह से निकल जाता है। इसके बाद उन्हें अच्छी तरह से साफ करके सब्जी बनायी जा सकती है। आप इसकी सूखी सब्जी बना सकते हैं।
    तिमला जब पक जाता है तो इसके अंदर का गूदा बहुत स्वादिष्ट होता है। इसमें काफी मात्रा में कैल्सियम पाया जाता है। इसमें कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, फाइबर तथा कैल्सियम, मैग्निसियम, पो​टेसियम और फास्फोरस जैसे खनिज विद्यमान होते हैं। पक्के हुए फल में ग्लूकोज, फू्क्टोज और सुक्रोज पाया जाता है। इसमें जितना अधिक फाइबर होता है उतना किसी अन्य फल में नहीं पाया जाता है। इसमें कई ऐसे पोषक तत्व होते हैं जिनकी एक इंसान को हर दिन जरूरत पड़ती है। इस फल के खाने से कई बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है। पेट और मूत्र संबंधी रोगों तथा गले की खराश और खांसी के लिये इसे उपयोगी माना जाता है। इसे शरीर से जहरीले पदार्थों को बाहर निकालने में भी मदद मिलती है। 

झंगोरा : बनाओ खीर या सपोड़ो छांछ्या


सुबह लेकर अखबार में पढ़ा की उत्तराखंड की झंगोरा की खीर राष्ट्रपति भवन के मेन्यू में शामिल कर ली गयी है। खुशी मिली और साथ में मुंह पानी भी आ गया। कुछ लोगों के लिये यह शब्द नया हो सकता है लेकिन मुझे नहीं लगता कि जो व्यक्ति कुछ दिन भी पहाड़ में रहा हो वह झंगोरा से अपरिचित हो। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था, '' मंडुवा . झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।'' 
पौष्टिकता से भरपूर होता है झंगोरा
     उत्तराखंड में झंगोरा की खेती सदियों से की जा रही है और एक समय इसका उपयोग चावल के स्थान पर भात की तरह पकाकर खाने के लिये किया जाता था। चावल की बढ़ती पैठ के कारण दशकों पहले ही पहाड़ों में इसे दूसरे दर्जे के भोजन की सूची में धकेल दिया था। यह अलग बात है कि चावल की तुलना में झंगोरा अधिक पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है और इसकी खेती के लिये उतनी मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है जितनी की धान उगाने के लिये। उत्तराखंड में जिन खेतों की मिट्टी मुलायम और उपजाऊ होती है वहां धान बोया जाता है और जो खेत थोड़ा पथरीला हो वहां झंगोरा की खेती की जाती है। इसके धान के खेत के किनारे भी रोपा जाता है। एक समय आया जबकि उत्तराखंड के किसानों का इससे मोहभंग हो गया था लेकिन अब वे धीरे धीरे इसके गुणों से परिचित हो रहे हैं। इसलिए पहाड़ी खेतों के फिर से झंगोरा की तरह लहलहाने की उम्मीद की जा सकती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हों तो लोगों को झंगोरा उत्पादन के लिये प्रेरित कर सकते हैं। कई खेतों में झंगोरा के साथ कौणी भी बो दी जाती है। कौणी का दाना पीला होता है और मरीजों के लिये इसकी खिचड़ी काफी उपयोगी होती है।
     झंगोरा खरीफ ऋतु की फसल है क्योंकि पानी के लिये यह बरसात पर निर्भर रहती है। पहाड़ों में झंगोरा की खेती करने के लिये खेत को हल से जोता जाता है और इसमें झंगोरा छिड़क दिया जाता है। बरसात में इसकी निराई, गुड़ाई, रोपाई की जाती है। इधर बारिश हुई और गांवों के लोग खेतों में झंगोरा को व्यवस्थित तरीके से लगाने के लिये चले जाते हैं। वैसे इसकी बुवाई मार्च से मई तक कर दी जाती है और बरसात इसको नया जीवन देती है। सितंबर . अक्तूबर में कटाई का काम चलता है। इसकी लंबी बालियां मनमोहक होती हैं, जिन्हें मांडकर या कूटकर झंगोरा का एक एक दाना अलग कर दिया जाता है। तब यह भूरे रंग का होता है। इसके भूरे रंग के छिलके को निकालने के लिये ओखली (उरख्यालु) में कूटा जाता था जिसके अंदर का दाना सफेद होता है। इसी दाने का उपयोग खीर, खिचड़ी या चावल की तरह पकाने के लिये किया जाता है। पहाड़ी घरों में आज भी झंगोरा से छंछ्या बनाया जाता है जो वहां के लोगों में काफी लोक​​प्रिय है। 
      पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास पर नैनीताल जाते थे तो झंगोरा की खीर उनका पसंदीदा व्यंजन होता था। ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स और उनकी पत्नी कैमिला पार्कर जब नवंबर 2013 में भारत दौरे पर आये तो वे उत्तराखंड भी गये थे। वहां उन्हें झंगोरा की खीर परोसी गयी थी जिसकी उन्होंने काफी तारीफ की थी। यहां तक उन्होंने इसे बनाने की विधि भी पूछी थी। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को इस साल मई में उत्तराखंड प्रवास के दौरान राजभवन में झंगोरा की खीर परोसी गयी थी। यहीं से इस पहाड़ी व्यंजन का राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने का रास्ता साफ हुआ था। गढ़वाल मंडल विकास निगम पहले ही इसे अपने मेन्यू में शामिल कर चुका है।
     माना जाता है कि झंगोरा मध्य एशिया से भारत में पहुंचा और उत्तराखंड की जलवायु अनुकूल होने के कारण वहां इसने अपनी जड़ें मजबूत कर ली। भारत के कुछ प्राचीन ग्रंथों में भी इसका वर्णन मिलता है। चीन, अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में भी इसकी खेती की जाती है। झंगोरा का वैज्ञानिक नाम इक्निकलोवा फ्रूमेन्टेसी है। हिन्दी में इसे सावक या श्याम का चावल कहते हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान केे अनुसार झंगोरा में कच्चे फाइबर की मात्रा 9.8 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 65.5 ग्राम, प्रोटीन 6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम, खनिज 4.4 ग्राम, कैल्शियम 20 मिलीग्राम, लौह तत्व पांच मिलीग्राम और फास्फोरस 280 ग्राम पाया जाता है। 
     यह सभी जानते हैं कि खनिज और फास्फोरस शरीर के लिये बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। झंगोरा में चावल की तुलना में वसा, खनिज और लौह तत्व अधिक पाये जाते हैं। इसमें मौजूद कैल्शियम दातों और हड्डियों को मजबूत बनाता है। झंगोरा में फाइबर की मात्रा अधिक होने से यह मधुमेह के रोगियों के लिये उपयोगी भोजन है। झंगोरा खाने से शरीर में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यही वजह है कि इस साल के शुरू में उत्तराखंड सरकार ने अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाले भोजन में झंगोरा की खीर को शामिल करने का सराहनीय प्रयास किया। उम्मीद है कि इससे लोग भी झंगोरा की पौष्टिकता को समझेंगे और चावल की जगह इसको खाने में नहीं हिचकिचाएंगे। असलियत तो यह है कि जो चावल की जगह झंगोरा खा रहा है वह तन और मन से अधिक समृद्ध है। 

झंगोरा से बनने वाले भोज्य पदार्थ

     त्तराखंड में नवरात्रों या व्रत आदि के समय में भी झंगोरा का उपयोग किया जाता है लेकिन आम दिनों में इसे चावल की तरह पकाया जाता है या फिर इसकी खीर, खिचड़ी, छंछ्या या छछिंडु बनाया जाता है। झंगोरा की खीर भी चावल की खीर की तरह की बनायी जाती है। यदि आप 300 ग्राम के करीब झंगोरा लेते हैं तो उसमें 150 ग्राम चीनी और लगभग डेढ़ लीटर दूध मिलाया जाता है। झंगोरा को पहले 15 से 20 मिनट तक पानी में भिगो कर रख दो और इस बीच दूध को उबाल दो। उबले हुए दूध में झंगोरा मिला दो और अच्छी तरह से पकने तक इसमें करछी चलाते रहो। इसके बाद चीनी मिलाओ। स्वाद बढ़ाना है तो काजू, किसमिस, बादाम, चिरौंजी जैसे ड्राई फ्रूट भी मिला सकते हो। अब इसे आप गरमागर्म परोसो या ठंडा होकर खाओ, स्वाद लाजवाब होता है।
    जिस तरह से चावल को पकाते हैं झंगोरा को उस तरह से इसका भात पकाकर दाल के साथ खाया जाता है। इसके अलावा इसकी खिंचड़ी भी पकायी जाती है। छंछ्या के लिये छांछ में झंगोरा मिलाकर उसे पकाया जाता है। इसे नमकीन और मीठा दोनों तरह से बना सकते हैं। इसके अलावा अब झंगोरा की रोटी और उपमा भी बनाया जाने लगा है

Saturday 18 April 2015

Char dham


Yamunotri Dham

amunotri is located at an altitude of 3293 metres above sea level, in the Garhwal Himalaya about 40 km away from Barkot in Uttarkashi district of Uttarakhand. The actual source of Yamuna River lies in the Yamunotri Glacier at a height 6,387 metres near Bandarpunch Peaks in Lower Himalayas.


Gangotri Dham

Gangotri is located at an altitude of 3100 meters above sea level, on the banks of Bhagirathi river. Gangotri is the starting point of Ganga river where the goddess Ganga workshipped by the Pilgrims or Devotees. In Ancient time the river is called 


Kedarnath Dham




Kedarnath temple is one of the sacred pilgrimage centre in Northern India, located on the bank of Mandakini river at an altitude of 3584 meters above sea level. The historical name of this region is "Kedar Khand". Kedarnath temple is a part of Char Dhams and Panch Kedar in Uttarakhand and one of 





Badrinath Dham

Badrinath Temple is is one of the holiest hindu pilgrimage in India. It is one the most important dhams and the only temple which is part of both "MainChardham of India" and "Chota Char Dham Yatra". Badrinath is famous for its well known Lord Vishnu temple (also known as Badri Vishal) named as Badrinath temple.