Wednesday 7 May 2014

रामायण ही न होता अगर वह न होती, फिर भी उसका जिक्र रामायण में नहीं है. क्यों? हैरत में डालने वाला राम से जुड़ा एक सच

वचनबद्ध पिता अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और आदर्श, आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हमारे पवित्र ग्रंथों का हिस्सा हैं. राम की जन्मभूमि अयोध्या नगरी आज भी पवित्र मानी जाती है. अपने वचन के लिए अपने ही पुत्र को वनवास देकर प्राण गंवाने वाले दशरथ भी धर्म पुरुष के रूप में धर्म ग्रंथों में अमर हो गए. उनकी पत्नियां कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी भी राम और दशरथ से जुड़कर पवित्र ग्रंथों का हिस्सा बन गईं लेकिन इन सबसे जुड़ा एक चरित्र ऐसा भी था जो राम और रामायण की कहानियों में कहीं नहीं है लेकिन अगर वह न होती तो रामायण तो बाद की बात है, राम ही शायद न होते. इसके बावजूद इस बेहद महत्वपूर्ण चरित्र को पवित्र वाल्मीकि रामायण से दूर रखा गया है. क्यों?

Valmiki Ramaya

दशरथ के पिता सूर्य राजवंश के 38वें राजा थे. वे सरयू नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित कौशल राज्य के राजा थे. सरयू नदी के उत्तरी किनारे स्थित कौशल राज्य का राजा सूर्य वंश का ही कोई दूसरा व्यक्ति था. अजा की पत्नी और दशरथ की माता इंदुमती वास्तव में एक अप्सरा थीं लेकिन किसी शापवश धरती पर साधारण स्त्री वेश में रहने को विवश थीं. इसी रूप में इंदुमती का विवाह अजा से हो गया और दशरथ पैदा हुए. एक दिन इंदुमती और अजा साथ-साथ बैठे हुए थे कि उसी जगह से आसमान से नारद गुजर रहे थे. नारद की वीणा से एक माला टूटकर इंदुमती पर गिरी और वह अपने शाप से मुक्त हो इंद्रलोक चली गई.

Ramayana



अजा इंदुमती से बहुत प्रेम करते थे और बहुत कोशिशों के बाद भी जब वे इंदुमती तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं समझ सके तो स्वेच्छा से अपने प्राण हर लिए. उनकी मौत के वक्त दशरथ मात्र 8 माह के थे. कौशल के राजगुरु वशिष्ठ के आदेश से गुरु मरुधन्वा ने दशरथ का पालन-पोषण किया और अजा के राज में सबसे बुद्धिमान मंत्री सुमंत्र ने दशरथ के प्रतीक रूप में राज्य का कार्यभार संभाला. 18 वर्ष की उम्र में दशरथ ने कौशल जिसकी राजधानी अयोध्या थी, का भार संभाल लिया और दक्षिणी कौशल के राजा बन गए. वे उत्तरी कौशल को भी इसी में मिलाना चाहते थे. उत्तरी कौशल के राजा की एक बेटी थी कौशल्या. दशरथ ने उत्तरी कौशल के राजा से उनकी बेटी कौशल्या से विवाह करने का प्रस्ताव रखा. उत्तरी कौशल के राजा ने भी प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस तरह दशरथ-कौशल्या के विवाह के साथ दशरथ कौशल नरेश बन गए.
Putrakameshti Yagya

हालांकि वाल्मीकि रामायण जो वास्तविक रामायण मानी जाती है, में इस प्रसंग का उल्लेख नहीं है लेकिन वशिष्ठ रामायण में उत्तरी और दक्षिणी कौशल के राजा के पुत्र-पुत्री होने के कारण दशरथ और कौशल्या समान गोत्र के थे और उनके समान वंश से होने का उल्लेख है जो इन्हें मालूम नहीं था. वशिष्ठ रामायण में ही इस बात का भी उल्लेख है कि विवाह के तुरंत बाद कौशल्या गर्भवती हो गईं और उनकी एक पुत्री हुई किंतु वह अपाहिज थी. बहुत उपचार के बाद भी वह ठीक न हो सकी तो गुरु वशिष्ठ से कारण और उपचार पूछा गया. गुरु वशिष्ठ ने इसका कारण कौशल्या और दशरथ का समान गोत्र से होना बताया गया और उन्होंने कहा कि उनकी बेटी तभी ठीक हो सकती है अगर उसे किसी को गोद दे दिया जाए. इसलिए दशरथ और कौशल्या की पहली संतान गोद दे दी गई. इसके बाद कौशल्या और दशरथ को और कोई संतान न होने कारण दशरथ ने सुमित्रा और कैकयी से विवाह भी किया पर संतान फिर भी न हुई. आखिरकार वशिष्ठ की सलाह पर ही यज्ञ कराया गया जिसके प्रभाव से राम, लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न पैदा हुए. इस प्रकार वशिष्ठ रामायण के अनुसार राम की एक बहन भी थी लेकिन वाल्मीकि रामायण में उसका कोई जिक्र नहीं है. वशिष्ठ रामायण के अनुसार ही दशरथ-पुत्री का नाम शांतई था जिसका विवाह ऋष्यश्रृंग से हुआ था.

आखिर कैसे पैदा हुए कौरव? महाभारत के 102 कौरवों के पैदा होने की सनसनीखेज कहानी

कौरव न होते तो महाभारत न होता. महाभारत में धृतराष्ट्र और गांधारी के 100 बेटे (कौरव) और पांडु के पांच बेटों (पांडवों) के बीच धर्मयुद्ध की लड़ाई और सत्य की जीत की कहानी है. पर बहुत कम लोग जानते हैं कि कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे. गांधारी जब धृतराष्ट्र से विवाह कर हस्तिनापुर आईं तो धृतराष्ट्र के अंधा होने की बात उन्हें पता नहीं थी. पति के अंधा होने की बात जानकर गांधारी ने भी आंखों पर पट्टी बांधकर आजीवन पति के समान रोशनी विहीन जीवन जीने का संकल्प लिया. इसी दौरान ऋषि व्यास उनसे मिलने हस्तिनापुर आए जिनकी उस अवस्था में भी गांधारी ने बहुत सेवा की.

Mahabharata story

गांधारी की सेवा और पतिव्रता संकल्प से प्रसन्न होकर ऋषि व्यास ने उन्हें 100 पुत्रों की माता होने का आशीर्वाद दिया. उन्हीं के आशीर्वाद से गांधारी दो वर्षों तक गर्भवती रहीं लेकिन उन्हें मृत मांस का लोथड़ा पैदा हुआ. तब ऋषि व्यास ने उसे 100 पुत्रों के लिए 100 टुकड़ों में काटकर घड़े में एक वर्ष तक बंद रखने का आदेश दिया. गांधारी द्वारा एक पुत्री की इच्छा व्यक्त करने पर ऋषि व्यास ने मांस के उस लोथड़े को खुद 101 टुकड़ों में काटा और घड़े में डालकर बंद किया जिससे एक वर्ष बाद दुर्योधन समेत गांधारी के 100 पुत्र और एक पुत्री दु:शला पैदा हुई.

birth of kauravas
जहां भूतों का होना आम बात है


कहते हैं धृतराष्ट्र की किसी दासी से संबध थे. जब कौरव जन्म ले रहे थे तब वह दासी भी गर्भवती थी. जब पहला घड़ा फूटा और दुर्योधन पैदा हुआ उसी वक्त उस दासी ने भी एक बेटे को जन्म दिया जिसका नाम था ‘युतुत्सु’. इस प्रकार कौरव 100 नहीं बल्कि 102 थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
1. दुर्योधन
2. दु:शासन
3. दुस्सह
4. दु:शल
5. जलसन्ध
6. सम
7. सह
8. विन्द
9. अनुविन्द
10. दुर्धर्ष
11. सुबाह
12. दु़ष्ट्रधर्षण
13. दुर्मर्षण
14. दुर्मुख
15. दुष्कर्ण
16. कर्ण
17. विविशन्ति
18. विकर्ण
19. शल
20. सत्त्व
21. सुलोचन
22. चित्र
23. उपचित्र
24. चित्राक्ष
25. चारुचित्रशारानन
26. दुर्मद
27. दुरिगाह
28. विवित्सु
29. विकटानन
30. ऊर्णनाभ
31. सुनाभ
32. नन्द
33. उपनन्द
34. चित्रबाण
35. चित्रवर्मा
36. सुवर्मा
एक तस्वीर जो अलग ही किसी दुनिया में ले जाती है


37. दुर्विरोचन
38. अयोबाहु
39. चित्राङ्ग
40. चित्रकुण्डल
41. भीमवेग
42. भीमबल
43. बलाकि
44. बलवर्धन
45. उग्रायुध
46. सुषेण
47. कुण्डोदर
48. महोदर
49. चित्रायुध
50. निषङ्गी
51. पाशी
52. वृन्दारक
53. दृढवर्मा
54. दृढक्षत्र
55. सोमकीर्ति
56. अनूर्दर
57. दृढसन्ध
58. जरासन्ध
59. सत्यसन्ध
60. सदस्सुवाक्
61. उग्रश्रव
62. उग्रसेन
63. सेनानी
64. दुष्पराजय
65. अपराजित
66. पण्डितक
67. विशलाक्ष
68. दुराधर
69. दृढहस्त
70. सुहस्त
71. वातवेग
72. सुवर्चस
73. आदित्यकेतु
74. बह्वाशी
एकमात्र जलराजकुमार इंसानी रूप में धरती पर रहता है !!


75. नागदत्
76. अग्रयायॊ
77. कवची
78. क्रथन
79. दण्डी
80. दण्डधार
81. धनुर्ग्रह
82. उग्र
83. भीमरथ
84. वीरबाहु
85. अलोलुप
86. अभय
87. रौद्रकर्मा
88. द्रुढरथाश्रय
89. अनाधृष्य
90. कुण्डभेदी
91. विरावी
92. प्रमथ
93. प्रमाथी
94. दीर्घारोम
95. दीर्घबाहु
96. व्यूढोरु
97. कनकध्वज
98. कुण्डाशी
99. विरज
100. दुहुसलाई
101. दु:शला (पुत्री)‎
102. युयुत्सु

कैसे जन्मीं भगवान शंकर की बहन और उनसे क्यों परेशान हुईं मां पार्वती

हिंदुस्तान में परिवारिक रिश्तों का खास महत्व है. आज भले ही लोग संयुक्त परिवार से मुंह मोड़ रहे हों और उनका ध्यान एकल परिवार की तरफ तेजी से बढ़ रहा हो, इसके बावजूद भी लोग खुद को रिश्तों के बंधन से मुक्त नहीं कर पाए हैं. लोग विभिन्न पारिवारिक समारोहों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर परिवार के अटूट बंधन को और ज्यादा मजबूत करते हैं.

Shiva and Parvati 1

वैसे वर्तमान में बढ़ते एकल परिवार का चलन मुख्य रूप से परिवार में  रिश्तों के बीच दरार माना गया है. सास-बहू की तकरार और ननद-भाभी की नोक-झोंक ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं जिसने रिश्तों में दूरियां पैदा कर दी है. सवाल यहां यह उठता है कि क्या केवल इतने भर से आज संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं. क्या हमारे पारिवारिक रिश्ते इतने कमजोर हैं कि मामूली सी नोक-झोंक से संबंधों के बीच दरार पैदा हो रही है.

खैर जो भी हो, वैसे सास-बहू में तकरार और ननद-भाभी में नोक-झोंक आज से नहीं बल्कि पौराणिक काल से ही चली आ रही है.

तस्वीरों में देखिए आत्माओं का सच

shiva-parvati

पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से विवाह किया तो वह खुद को घर में अकेली महसूस करती थीं. उनकी इच्छा थी कि काश उनकी भी एक ननद होती जिससे उनका मन लगा रहता.  लेकिन भगवान शिव तो अजन्मे थे, उनकी कोई बहन नहीं थी इसलिए पार्वती मन की बात मन में रख कर बैठ गईं. भगवान शिव तो अन्तर्यामी हैं उन्होंने देवी पार्वती के मन की बात जान ली. उन्होंने पार्वती से पूछा कोई समस्या है देवी? तब पार्वती ने कहा कि काश उनकी भी कोई ननद होती.

भगवान शिव ने कहा मैं तुम्हें ननद तो लाकर दे दूं, लेकिन क्या ननद के साथ आपकी बनेगी. पार्वती जी ने कहा कि भला ननद से मेरी क्यों न बनेगी. भगवान शिव ने कहा ठीक है देवी, मैं तुम्हें एक ननद लाकर दे देता हूं. भगवान शिव ने अपनी माया से एक देवी को उत्पन्न कर दिया. यह देवी बहुत ही मोटी थी, इनके पैरों में दरारें पड़ी हुई थीं. भगवान शिव ने कहा कि यह लो तुम्हारी ननद आ गयी. इनका नाम असावरी देवी है.

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देवी पार्वती अपनी ननद को देखकर बड़ी खुश हुईं. झटपट असावरी देवी के लिए भोजन बनाने लगीं. असावरी देवी स्नान करके आईं और भोजन मांगने लगीं. देवी पार्वती ने भोजन परोस दिया. जब असावरी देवी ने खाना शुरू किया, तो पार्वती के भंडार में जो कुछ भी था सब खा गईं और महादेव के लिए कुछ भी नहीं बचा. इससे पार्वती दुःखी हो गईं. इसके बाद जब देवी पार्वती ने ननद को पहनने के लिए नए वस्त्र दिए, तो मोटी असावरी देवी के लिए वह वस्त्र छोटे पड़ गए. पार्वती उनके लिए दूसरे वस्त्र का इंतजाम करने लगीं.

इस बीच ननद रानी को अचानक मजाक सूझा और उन्होंने अपने पैरों की दरारों में पार्वती जी को छुपा लिया. पार्वती जी का दम घुटने लगा. महादेव ने जब असावरी देवी से पार्वती के बारे में पूछा तो असावरी देवी ने झूठ बोला. जब शिव जी ने कहा कि कहीं ये तुम्हारी बदमाशी तो नहीं, असावरी देवी हंसने लगीं और जमीन पर पांव पटक दिया. इससे पैर की दरारों में दबी देवी पार्वती बाहर आ गिरीं.

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उधर ननद के व्यवहार से देवी पार्वती का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. देवी पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि कृपया ननद को जल्दी से ससुराल भेजने की कृपा करें. मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने ननद की चाह की. भगवान शिव ने असावरी देवी को कैलाश से विदा कर दिया. लेकिन इस घटना के बाद से ननद और भाभी के बीच नोक-झोंक का सिलसिला शुरू हो गया.

तकरार, मन-मुटाव, नोक-झोंक किसी भी रिश्ते में न हो तो कोई भी परिवार मजबूत नहीं हो सकता. अपने रिश्तों में प्यार और विश्वास लाना है तो ऐसे तकरारों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए बल्कि खुशी-खुशी गले लगाना चाहिए.

विष्णु के पुत्रों को क्यों मार डाला था भगवान शिव ने, जानिए एक पौराणिक रहस्य

अपनी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात भगवान शिव ने समय-समय पर कई अवतारों की प्राप्ति की थी। पुराणों में भगवान शिव के कई अवतार विख्यात हैं लेकिन उनमें से कुछ ही ऐसे अवतार हैं जिन्हें हम प्रमुख रूप से याद करते हैं। इन्हीं प्रमुख अवतारों में से दो हैं: महेश व वृषभ। शिव के इन दो अवतारों को जानने के बाद उनकी महिमा हमारी सोच से बहुत आगे बढ़ जाती है। आइए संक्षेप में जानते हैं शंकर भगवान के इन अवतारों के बारे में:’

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शिव का महेश अवतार
शिव की नगरी में उनकी पत्नी माता पार्वती के एक द्वारपाल थे जिनका नाम था भैरव। उस समय उन्हें माता पार्वती के प्रति आकर्षण हो गया था जिस कारणवश एक दिन उन्होंने माता पार्वती के महल से बाहर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। भैरव के इस व्यवहार से माता क्रोधित हो उठीं और उन्होंने उसे ‘नश्वर’ रूप में धरती पर जन्म लेने का श्राप दे दिया। धरती पर भैरव ने ‘वेताल’ के रूप में जन्म लिया और श्राप से मुक्त होने के लिए भगवान शिव के अवतार ‘महेश’ व माता पार्वती के अवतार ‘गिरिजा’ की तपस्या की।
shiva and parvati
कैसे जन्मीं भगवान शंकर की बहन और उनसे क्यों परेशान हुईं मां पार्वती

शिव का वृषभ अवतार
शिव का यह अवतार एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को पूर्ण करने के लिए लिया गया था। वृषभ एक बैल था जिसने देवताओं को भगवान विष्णु के क्रूर पुत्रों के अत्याचारों से मुक्त करवाने के लिए पाताल लोक में जाकर उन्हें मारा था। लेकिन एक देवता के ही पुत्रों को क्यूं मारा था भगवान शिव ने?
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शिव की वृषभ अवतार लेने के पीछे मंशा क्या थी?
समुद्र मंथन के पश्चात उसमें से कई वस्तुएं प्रकट हुई थीं जैसे कि हीरे, चंद्रमा, लक्ष्मी, विष, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, अमृत से भरा हुआ पात्र, व अन्य वस्तुएं। समुद्र से निकले उस अमृत पात्र के लिए देवताओं व दानवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था और अंत में वह पात्र दानवों के ही वश में आ गया। इसके पश्चात उस पात्र को पाने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु की मदद ली। शिव की दिव्य प्रेरणा की मदद से विष्णु ने अत्यंत सुंदरी के रूप ‘मोहिनी’ को धारण किया व दानवों के समक्ष प्रकट हुए। अपनी सुंदरता के छल से वे दानवों को विचलित करने में सफल हुए और अंत में उन्होंने उस अमृत पात्र को पा लिया।

 आखिर कैसे पैदा हुए कौरव? महाभारत के 102 कौरवों के पैदा होने की सनसनीखेज कहानी

दानवों की नजर से अमृत पात्र को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने मायाजाल से ढेर सारी अप्सराओं की सर्जना की। जब दानवों ने इन अप्सराओं को देखा तो उनसे आकर्षित हो वे उन्हें जबर्दस्ती अपने निवास पाताल लोक ले गए। इसके पश्चात जब वे अमृत पात्र को लेने के लिए वापस लौटे तब तक सभी देवता उस अमृत का सेवन कर चुके थे।
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इस घटना की सूचना जब दानवों को मिली तो इस बात का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने देवताओं पर फिर से आक्रमण कर दिया। लेकिन इस बार दानवों की ही हार हुई और अपनी जान को बचाते हुए दानव अपने निवास पाताल की ओर भाग खड़े हुए। दानवों का पीछा करते हुए भगवान विष्णु उनके पीछे पाताल लोक पहुंच गए और वहां सभी दानवों का विनाश कर दिया। पाताल लोक में भगवान विष्णु द्वारा बनाई गई अप्सराओं ने जब विष्णु को देखा तो वे उन पर मोहित हो गईं और उन्होंने भगवान शिव से विष्णु को उनका स्वामी बन जाने का वरदान मांगा। अपने भक्तों की मुराद पूरी करने वाले भगवान शिव ने अप्सराओं का मांगा हुआ वरदान पूरा किया और विष्णु को अपने सभी धर्मों व कर्तव्यों को भूल अप्सराओं के साथ पाताल लोक में रहने के लिए कहा।

और फिर हुए थे शिव वृषभ रूप में प्रकट
भगवान विष्णु के पाताल लोक में वास के दौरान उन्हें अप्सराओं से कुछ पुत्रों की प्राप्ति हुई थी लेकिन यह पुत्र अत्यंत दुष्ट व क्रूर थे। अपनी क्रूरता के बल पर विष्णु के इन पुत्रों ने तीनों लोकों के निवासियों को परेशान करना शुरू कर दिया। उनके अत्याचार से परेशान होकर सभी देवतागण भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत हुए व उनसे विष्णु के पुत्रों को मारकर इस समस्या से मुक्त करवाने के लिए प्रार्थना की।
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देवताओं की परेशानी को दूर करने के लिए भगवान शिव एक बैल यानि कि ‘वृषभ’ के रूप में पाताल लोक पहुंच गए और वहां जाकर भगवान विष्णु के सभी पुत्रों को मार डाला। मौके पर पहुंचे भगवान विष्णु ने जब अपने पुत्रों को मृत पाया तो वे क्रोधित हो उठे और वृषभ पर अपने शस्त्रों के उपयोग से वार किया लेकिन उनके एक भी वार का वृषभ पर कोई असर ना हुआ।

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वृषभ भगवान शिव का ही रूप था और कहा जाता है कि शिव व विष्णु शंकर नारायण का रूप थे। इसलिए युद्ध चलने के कई वर्षों के पश्चात भी दोनों में से किसी को भी किसी प्रकार की हानि ना हुई और अंत में जिन अप्सराओं ने विष्णु को अपने वरदान में बांध कर रखा था उन्होंने भी विष्णु को उस वरदान से मुक्त कर दिया। इसके पश्चात जब विष्णु को इन बातों का संज्ञान हुआ तो उन्होंने भगवान शिव की प्रशंसा की।
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अंत में भगवान शिव ने विष्णु को अपने लोक ‘विष्णुलोक या वैकुंठ’ वापस लौट जाने को कहा। भगवान विष्णु ने अपना सुदर्शन चक्र पाताल लोक में ही छोड़ जाने का फैसला किया और वैकुंठ लौटने पर उन्हें भगवान शिव द्वारा एक और सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई।

Tuesday 6 May 2014

11 /12 /13 का सच क्या है?

जो वक्त गुजर गया वह दुबारा तो यूं भी नहीं आता लेकिन कुछ वक्त ऐसे होते हैं जिनके आने का पता हमें पहले से होता है. आज का दिन भी कुछ ऐसा ही था. सबको पता था कि आज का दिन आने वाला है और सबने इसके लिए तैयारियां भी की थीं लेकिन जो छूट गए उनका क्या? क्या होगा आपका अगर आपको आज के दिन का पता नहीं था और अगर आपने इसके लिए तैयारी नहीं की?

आज जिनकी भी शादियां होंगी वे अटूट रहेंगे. अब तक की जानकारी के अनुसार 3000 जोड़े आज के दिन विशेष रूप से शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं. दिल्ली में भी कई जोड़े इस दिन के साथ जुड़ने के लिए आज शादियां करने जा रहे हैं. इसलिए सड़कों पर अगर ट्रैफिक दिखे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. आज के दिन जन्म लेने वाले बच्चे भी बहुत बुद्धिमान और यशस्वी होंगे ऐसा ज्योतिषशास्त्र का मानना है. इतनी सारी संभावनाएं इस दिन के साथ जुड़ी हैं क्योंकि आपने शायद ध्यान नहीं दिया लेकिन आज की तारीख कैलेंडर के इतिहास में नायाब है.

Trumpet Dayयाद कीजिए आज की तारीख क्या है. आज है 11 दिसंबर 2013 यानि 11/12/13. ग्रैगेरियन कैलेंडर में विषम संख्याओं का यह अद्भुत मेल अब 90 सालों तक नहीं आएगा. इसे ‘ट्रंपेट डे’ भी कहा जाता है क्योंकि यह उच्चारण किए जाने के क्रम इससे कुछ ब्रास इंस्ट्रूमेंट की तरह ध्वनि आती है. अगली शताब्दी में 1/1/1, 1/2/3 आएंगे लेकिन इसके लिए तब आप नहीं होंगे. अंक ज्योतिष खास रूप से आज की तारीख को हर दृष्टि से शुभ मानता है. आज के दिन होने वाली शादियां और आज के दिन पैदा होने वाले बच्चे भी विशेष प्रभावशाली होंगे. इसलिए दुनिया भर में इस तारीख को स्पेशल बनाने के लिए लोग कई दिनों से तैयारियों में जुटे हैं. दुनियाभर के कई जोड़े आज शादी करेंगे और गर्भवती महिलाओं ने खास तौर से आज अपनी डिलीवरी डेट रखवाई है.
एक शहर असली जलपरियों का

आज के बाद तारीखों का ठीक यही संयोग तो 90 सालों के बाद आएगा लेकिन ऐसे कुछ अन्य संयोग अगले वर्ष भी आने वाले हैं तो अगर आप इस दिन के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं कर सके हैं तो इन अगली तारीखों के लिए कर सकते हैं. अमेरिकन कैंलेडर के अनुसार 13 दिसंबर, 2014 जो 12/13/14 लिखा जाता है, भी खास दिन माना जा रहा है. बहरहाल आज की इस तारीख में अपने लिए खास बनाने के सबके अपने तरीके हैं. लेकिन अगर आपकी न शादी होनी है, न बच्चे तो आप ईनाम जीतकर इसे खास बना सकते हैं. कैलिफोर्निया का एक रिटायर्ड टीचर ने इस खास दिन सबसे खास तरीके से मनाने का एक सबसे यूनिक आईडिया बताने वाले को, जो हमेशा यादगार रहे, 1112.13 डॉलर का ईनाम देने की घोषणा भी की है.

रामायण और गीता का युग फिर आने को है

गलियों में तब शायद शुद्ध मंत्रोच्चार की ध्वनि गूंजेगी. लोग तब संस्कृत के पंडित ढूंढ़ने के लिए भटकेंगे नहीं क्योंकि शायद गीता और रामायण के उस युग में संस्कृत के ज्ञानियों की कमी नहीं होगी. तब पंडित कहलाने वालों के वैदिक ज्ञान पर शक की ऊंगली नहीं उठेगी, न ही ज्ञानी कहलाने के लिए एक उम्र गुजर जाने और बूढ़े होने का इंतजार करना होगा. वैदिक ज्ञान का प्रकाश तब आम बात होगी.

शिक्षा और तकनीक को आज सबसे जरूरी चीज मानने वाले शायद इस खबर पर थोड़ी त्योरी चढ़ाएं लेकिन रामायण और महाभारत भी अब युवाओं की जरूरत और संभावनाएं बनेंगे. धार्मिक इतिहास को धर्मग्रंथों में होने और दादी-नानी की कहानियों, साधु-महात्माओं के प्रवचनों में सुनने के अलावा अब खासकर युवा इसमें अपना भविष्य बनाएंगे…और यह सब एक बार फिर होगा शिक्षा का गौरवपूर्ण इतिहास रखने वाली पाटलिपुत्र की धरती पर.

रामायण और गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों की कहानियां सुनना या धार्मिक टीवी सीरियल्स देखना लगभग हर किसी को पसंद आता है. पर रामायण, महाभारत और गीता जैसे धार्मिक ग्रंथ पढ़ना हर किसी को न पसंद होता है, न आज की व्यस्त दिनचर्या में किसी के लिए यह संभव है. कभी गुरुकुलों की परंपरा से विद्यार्जन का आरंभ करने वाले आर्यावर्त में तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय का अतुलनीय उच्च कोटि का शैक्षिक इतिहास है. उस शिक्षा व्यवस्था में वेद-शास्त्रों के अलावा व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) आदि भी पढ़ाए जाते थे. मतलब अपने पुराने काल में भी हम एक उच्च आधुनिक शिक्षा व्यवस्था से जुड़े थे. रहन-सहन और व्यावहारिक उपयोग में आधुनिकता के आ जाने तथा तकनीक और विज्ञान से जुड़ने के बाद हमारी शिक्षा और उसकी धारा में भी बदलाव आए. योग, धर्म, शास्त्र आदि इनमें कहीं नहीं रहे. आज रामायण और महाभारत पढ़ना हर किसी के वश की बात नहीं, इसे पढ़ने वाले महाज्ञाता माने जाते हैं. पर एक बार फिर पाटलिपुत्र में योग और धर्म अध्ययन का विस्तार होने जा रहा है. वह भी बड़े स्तर पर विश्वविद्यालय की पढ़ाई और डिग्री के साथ! विश्वविद्यालय स्तर पर यहां न सिर्फ रामायण, गीता जैसे धार्मिक ग्रंथ पढ़ाए जाएंगे बल्कि इसमें देश-विदेश में रोजगार भी उपलब्ध होगा.

आधुनिक शिक्षा की वकालत करने वाले शायद यह पढ़कर डर जाएं कि कहीं विश्वविद्यालयों में आवश्यक रूप से अब रामायण और गीता तो नहीं पढ़ाए जाने वाले! जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं होने वाला लेकिन हां, पटना से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बिद्दूपुर, वैशाली में एक विश्वविद्यालय जरूर खोला जा रहा है जहां रामायण, गीता जैसे धार्मिक ग्रंथों की पढ़ाई होगी. साथ ही रामायण आदि हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों से जुड़े शोध कार्य भी यहां किए जा सकेंगे. 5 साल के इस कोर्स में एस्ट्रोफीजिक्स, एस्ट्रॉनोमी, हिंदू माइथॉलोजी, वेद, उपनिषद संस्कृत, हिंदी, अन्य भारतीय तथा एशियाई भाषाओं में पढ़ाए जाएंगे. हिंदू ट्रस्ट द्वारा 25 एकड़ में 500 करोड़ की धनराशि से बनाए जाने वाले इस विश्वविद्यालय के लिए पटना के प्रसिद्ध महावीर मंदिर के सेक्रेटरी आचार्य किशोर कुणाल निर्माण कार्यभार संभाल रहे हैं. हालांकि अभी तक इसके बनने की कोई समय सीमा नहीं रखी गई है लेकिन आचार्य कुणाल के अनुसार जितनी जल्दी संभव होगा इसका निर्माण कार्य पूरा करने की कोशिश की जाएगी.

चूहा देखकर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करें



व्यावहारिक दृष्टिकोण से इसे संभावनाहीन बताने वाले भी इस परियोजना की पूरी जानकारी होने पर इसका विरोध नहीं कर सकेंगे. 2500 विद्यार्थियों के लिए सीटों की व्यवस्था के साथ इस विश्वविद्यालय में सभी आधुनिक सुविधाएं होंगी. साथ ही इसे रोजगारपरक भी बनाया जाएगा. विद्यार्थियों को यहां वाई-फाई की सुविधा भी दी जाएगी और विदेशी भाषाओं से भी उनके ज्ञान को जोड़ा जाएगा. आप सोच में पड़ गए कि धार्मिक ग्रंथों का विदेशी भाषाओं से क्या संबंध! चौंकिए मत! यह नालंदा विश्वविद्यालय की धरती है. ह्वेन सांग जैसे चीनी यात्री भी यहां आकर इसकी महिमा का गुणगान कर चुके हैं. इस विश्वविद्यालय में धर्म की इस शिक्षा को वैश्विक स्वरूप देने के लिए रामायण, गीता, ज्योतिष आदि की पढ़ाई हिंदी, संस्कृत के अलावे कई विदेशी भाषाओं में भी कराई जाएगी.

इससे वैश्विक स्तर पर इसके प्रसार के साथ ही तकनीक-सुलभ धर्म ज्ञान प्रशिक्षुओं को मिल सकेगा. साथ ही धर्म से जुड़े इन प्रशिक्षुओं के लिए वैश्विक रोजगार की संभावनाएं भी उपलब्ध होंगी. यहां धार्मिक रीति-रिवाजों, पूजा-पाठ आदि संपन्न कराने के लिए भी प्रशिक्षण दिया जाएगा. तो अगर आप ढोंगी बाबा या अल्पज्ञान पंडितों से तंग आ गए हैं तो कुछ वर्षों का इंतजार कीजिए…हो सकता है जैसे लोग हॉवर्ड और ऑक्सफोर्ड की डिग्री दिखाकर अपने ज्ञान का सबूत देते हैं, इससे निकले प्रशिक्षु भी इससे पढ़ा पंडित होने का मार्क लेकर घूमें. आपको शायद तब उनके पांडित्य पर यकीन आ जाए लेकिन जनाब ये एमबीए धारकों की तरह महंगे पंडित भी हो सकते हैं! तो इंतजार करें! ब्रांडेड पंडित अब बस आने ही वाले हैं!

श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप को अर्जुन के अतिरिक्त तीन अन्य लोगों ने भी देखा था, एक पौराणिक रहस्य

पौराणिक कथा के अनुसार जिस समय भगवान श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पार्थ (अर्जुन) को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दे रहे थे उस समय धनुर्धारी अर्जुन के अलावा इस उपदेश को विश्व में चार और लोग सुन रहे थे जिसमें पवन पुत्र हनुमान, महर्षि व्यास के शिष्य तथा धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित सदस्य संजय और बर्बरीक शामिल थे. आपको बताते चलें बर्बरीक घटोत्कच और अहिलावती के पुत्र तथा भीम के पोते थे. जब महाभारत का युद्ध चल रहा था उस दौरान उन्हें भगवान श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त था कि कौरवों और पाण्डवों के इस भयंकर युद्ध को देख सकते हैं.
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जब गीता का उपदेश चल रहा उस दौरान पवन पुत्र हनुमान अर्जुन के रथ पर बैठे थे जबकि संजय, धृतराष्ट्र से गीता आख्यान कर रहे थे. धृतराष्ट्र ने पूरी गीता संजय के मुख से सुनी वह वही थी जो कृष्ण उस समय अर्जुन से कह रहे थे. भगवान श्रीकृष्ण की मंशा थी कि धृतराष्ट्र को भी अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो और एक राजा के रूप में वो भारत को आने वाले विनाश से बचा लें. यही नहीं यही वह चार व्यक्ति थे जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को विश्वरूप के रूप में देखा.

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एकादश अध्याय में विश्वरूप दर्शन योग
दसवें अध्याय के सातवें श्लोक तक भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी विभूति, योगशक्ति तथा उसे जानने के माहात्म्य का संक्षेप में वर्णन किया है. फिर ग्यारहवें श्लोक तक भक्तियोग तथा उसका फल बताया। अर्जुन ने भगवान की स्तुति करके दिव्य विभूतियों तथा योगशक्ति का विस्तृत वर्णन करने के लिए श्री कृष्ण से प्रार्थना की। अपनी दिव्य विभूतियों के बारे में बताने के बाद आखिर में श्री कृष्ण ने योगशक्ति का प्रभाव बताया और समस्त ब्रह्मांड को अपने एक अंश से धारण किया हुआ बताकर अध्याय समाप्त किया. यह सुनकर अर्जुन के मन में उस महान स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने की इच्छा हुई. तब ग्यारहवें अध्याय के आरम्भ में भगवान श्री कृष्ण ने विश्वरूप के दर्शन के रूप में अपने को प्रत्यक्ष किया. इसी विराट स्वरूप में समस्त ब्रह्मांड को समाहित देख अर्जुन मोह मुक्त हुए तथा युद्ध के विरक्ति भाव से मुक्त होकर महाभारत युद्ध का निष्ठापूर्वक संचालन कर कौरवों पर विजय प्राप्त की.

अपनी बेटी के प्रति क्यों आकर्षित हुए ब्रह्मा? ऐसा क्या अपराध हुआ ब्रह्मा से जो शिव ने उनका पांचवां सिर ही काट डाला

अपनी बेटी के प्रति क्यों आकर्षित हुए ब्रह्मा? ऐसा क्या अपराध हुआ ब्रह्मा से जो शिव ने उनका पांचवां सिर ही काट डाला


33 करोड़ हिन्दू देवी देवताओं से जुड़े ना जाने कितने ही किस्से और कहानियां हमारे पुराणों में मौजूद हैं. ईश्वरीय लीला, उनके द्वारा किए गए चमत्कार आदि से संबंधित कथाएं हम अकसर सुनते रहते हैं. आज हम आपको सृष्टि के सृजनकर्ता ब्रह्मा के पांचवें सिर से जुड़ी एक ऐसी ही कथा सुनाने जा रहे हैं जो आज से पहले शायद आपने कभी ना सुनी हो.


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ब्रह्मा की मूरत में, तस्वीर में हमने सिर्फ उनके चार सिरों को देखा है लेकिन क्या आप जानते हैं ब्रह्मा का पांचवां सिर भी था जिसे उन्होंने अपनी ही गलतियों की वजह से गंवाया था. ऐसा माना जाता है कि अपने भक्त मनमाध की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे तीन ऐसे बाण भेंट किए थे जिनका उपयोग जिस किसी व्यक्ति पर भी होगा वो प्रेम रस में डूब जाएगा. इस बाण का परीक्षण करने के लिए मनमाध ने स्वयं ब्रह्मा पर ही इसका प्रयोग कर लिया. उस समय ब्रह्मा अकेले थे इसलिए अपनी प्रेम भावना को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने अंदर से सतरूपा नाम की एक स्त्री को अवतरित किया. ब्रह्मा सतरूपा की सुंदरता पर इतने अधिक मोहित थे कि उसे एक पल के लिए भी अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहते थे. वह हर दिशा में सतरूपा को देख सकें इसलिए उन्होंने अपने चार सिर विकसित किए. सतरूपा उनसे परेशान होकर आसमान में रहने लगी तो उसे देखने के लिए ब्रह्मा ने अपना पांचवां सिर भी विकसित कर लिया.


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सतरूपा को परेशान देखकर भगवान शिव क्रोधित हुए. उनका कहना था कि सतरूपा ब्रह्मा का हिस्सा है तो वह उनकी बेटी समान है और बेटी पर बुरी नजर रखना अनैतिक है. ब्रह्मा को उनकी अनैतिक भावनाओं के लिए दंड देने का निश्चय कर शिव ने उनके पांचवें सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया.


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सतरूपा के विषय में कई लोगों का कहना है कि सृष्टि का निर्माण करते हुए ब्रह्मा ने अत्याधिक मोहक और सुंदर सतरूपा नाम की स्त्री को बनाया और स्वयं उसके प्रेम में पड़ गए. उसे हर जगह देखने के लिए उन्होंने अपने चार सिर विकसित किए. ब्रह्मा की दृष्टि हर समय सतरूपा को घेरे रहती थी, जिससे सतरूपा बहुत तंग आ गई थी. वह आकाश में रहने लगी पर ब्रह्मा ने अपना पांचवा सिर ऊपर की ओर विकसित किया जो सतरूपा को आसमान में भी देखता था. सतरूपा को जन्म देने वाले ब्रह्मा ने जब उन पर अपनी बुरी नजर रखनी शुरू की तो भगवान शिव ने उन्हें सबक सिखाने के लिए उनका पांचवा सिर काट डाला.

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ब्रह्मा जी के पांचवें सिर से जुड़ी एक अन्य कथा कुछ इस तरह है कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु रोशनी का पीछा कर रहे थे. दोनों में शर्त लगी कि जो उस रोशनी के छोर तक पहले पहुंचेगा वही विजेता होगा. सूअर का वेश धरकर पानी में कूदकर विष्णु रोशनी का छोर ढूंढ़ने निकले, जबकि ब्रह्मा को समझ नहीं आ रहा था कि वो कैसे खुद को विजेता कहला पाने में सक्षम हों.
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रास्ते में ब्रह्मा ने एक फूल से पूछा कि रोशनी कहां से आ रही है, फूल ने उत्तर दिया कि यह अंतरिक्ष से गिर रही है. फूल को झूठा गवाह बनाकर ब्रह्मा अपनी जीत निश्चित करने पहुंच गए. परंतु भगवान शिव ने उनका झूठ पकड़ लिया और उनका पांचवा शीश काटकर उन्हें दंड दिया. दंतकथाओं के अनुसार वह शिव ही थे जो रोशनी के रूप में नजर आ रहे थे.

हनुमान की माता अंजना के अप्सरा से वानरी बनने की अद्भुत पौराणिक कथा

हिंदू धर्म ग्रंथों में 33 करोड़ देवी-देवताओं का जिक्र किया गया है, जिनकी अलग-अलग महिमा और भिन्न-भिन्न आदर्श हैं. इन्हीं देवी-देवताओं में से एक हैं राम भक्त, पवनपुत्र हनुमान, जिनका आज जन्मदिन है. अंजना और केसरी के लाल हनुमान के जन्मदिन को हिंदू धर्म के अनुयायी हनुमान जयंती के रूप में बड़े धूमधाम से मनाते हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन से जुड़ी रामायण, जो हिन्दुओं का एक पवित्र ग्रंथ है, में हनुमान को भी एक अभिन्न हिस्से के रूप में पेश किया गया है, इसलिए इनसे संबंधित घटनाओं, शिव के अवतार के रूप में इनका जन्म और बालपन में इनकी अठखेलियों के बारे में आपने कई बार सुना या पढ़ा होगा. लेकिन आज हम आपको उनकी मां अंजना और उनके पिता की मुलाकात कैसे हुई, कैसे हनुमान शिव के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए इससे संबंधित पुराणों में लिखी एक बड़ी रहस्यमय घटना से अवगत करवाने जा रहे हैं.

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हनुमान का जन्म कैसे हुआ, ये जानने के लिए पहले हम उनके माता-पिता के विवाह की भेंट कैसे हुई इस बारे में जान लेते हैं. हनुमान के जन्म की दैवीय घटना की शुरुआत होती है ब्रह्मा, जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, के दरबार से.  स्वर्ग में स्थित उनके महल में हजारों सेविकाएं थीं, जिनमें से एक थीं अंजना. अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा.

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अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें. ब्रह्मा ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें.

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अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की. अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए. बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे. मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी. मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा’.

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अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर ब्रह्म देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी. ब्रह्म देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी. शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी.


आखिर कैसे गायब हो गया एक पूरा द्वीप?


ब्रह्मा की बात मानकर अंजना धरती पर चली गईं और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं. जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं. जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया. अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं. अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था.

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अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं. अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया.


भगवान शिव के भक्त होने के कारण केसरी और अंजना अपने आराध्य की तपस्या में मग्न थे. तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा. अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें.


‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए. इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और किसी दूसरे कोने में महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए यज्ञ कर रहे थे. अग्नि देव ने उन्हें दैवीय ‘पायस’ दिया जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस पायस की कटोरी में थोड़ा सा पायस अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया.

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अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया और कुछ ही समय बाद उन्होंने वानर मुख वाले हनुमान जी को जन्म दिया.

शनिदेव से क्यों कुपित हुआ रावण तथा हनुमान जी को उनकी रक्षा के लिए क्यों पहल करनी पड़ी

शनिवार का दिन कई प्रकार से खास होता है. शनि ‘शन (shun)’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘उपेक्षित’ या ‘ध्यान से हटना’. ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह को मारक माना जाता है. शनिदेव इसके स्वामी हैं जो इंसान के बुरे कर्मों के अनुसार उन्हें दंडित करते हैं. इसलिए शनिवार के दिन विशेष रूप से शनिदेव की पूजा की जाती है ताकि शनि के कोप से बचा जा सके. पर शनिवार के दिन संकटमोचन हनुमानजी की भी विशेष रूप से पूजा की जाती है. क्यों? हम बता रहे हैं.

हनुमान और शनि एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं लेकिन बहुत रूपों में समान हैं:

God Shani Dev and Hanumanji

-शास्त्रों के अनुसार शनि की क्रूर दृष्टि हनुमान पर होने के कारण शनिदेव और हनुमान का रंग समान है.

-हनुमान रुद्र (शिव) के अवतार और शनिवार के दिन पैदा हुए माने जाते हैं. इसलिए हनुमान शिव की कृपा भी प्राप्त है.

-शास्त्रों में शनि द्वारा तपस्या कर शिव को प्रसन्न कर उनकी कृपा पाने का उल्लेख मिलता है.

-हनुमान संकटमोचन, शनिदेव बुरे कर्मों का दंड देने वाले.

-शनिदेव सूर्य-पुत्र हैं और हनुमान सूर्य उपासक (सूर्य के परम भक्त). शनि की अपने अपने पिता सूर्य से नहीं बनती थी. कहते हैं शनि ने सूर्य से युद्ध भी किया जबकि हनुमान पर सूर्य की असीम कृपा मानी जाती है. माना जाता है कि सूर्य ने हनुमान को शक्तियां देकर महावीर हनुमान बनाया.

-शनि का जन्म अग्नि (आग) से हुआ है जबकि हनुमान का जन्म पवन (हवा) से.

-शनिवार के तेल बेचना अशुभ जबकि हनुमान जी को तेल चढ़ाना शुभ माना जाता है.

रामायण और गीता का युग फिर आने को है



-शिव की उपासना करने वाले शनि के कोप से हमेशा बचे रहते हैं, हनुमान के भक्तों पर भी शनि की कुदृष्टि कभी नहीं पड़ती. इसके पीछे एक धार्मिक पौराणिक कथा है. रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी भी था. एक बार सभी देवों को हराकर उसने सभी नौ ग्रहों को अपने अधिकार में लिया लिया. सभी ग्रहों को जमीन पर मुंह के बल लिटाकर ग्रहों को वह अपने पैरों के नीचे रखता था. उसका पुत्र पैदा होने के समय सभी ग्रहों को उसने शुभ स्थिति में रख दिया. देवताओं को डर भी था कि इस प्रकार रावण का पुत्र इंद्रजीत अजेय हो जाएगा लेकिन ग्रह भी रावण के पैरों के नीचे दबे होने के कारण कुछ नहीं कर सकते थे.

Story of God Shani Dev and Hanumanji

शनि अपनी दृष्टि से रावण की शुभ स्थति को खराब कर सकने में सक्षम थे पर जमीन के बल होने के कारण वह कुछ नहीं कर सकते थे. तब नारद मुनि लंका आए और ग्रहों को जीतने के लिए रावण की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा अपनी इस जीत को इन ग्रहों को उन्हें दिखाना चाहिए जो कि जमीन के बल लेटे होने के कारण वे नहीं देख सकते थे. रावण ने नारद की बात मान ली और ग्रहों का मुंह आसमान की ओर कर दिया. तब शनि ने अपनी मारक दृष्टि से रावण की दशा खराब कर दी. रावण को बात समझ आई और उसने शनि को कारागृह में डाल दिया और वह भाग न सकें इसलिए जेल के द्वार पर इस प्रकार शिवलिंग लगा दी कि उस पर पांव रखे बिना शनिदेव भाग न सकें. तब हनुमान ने लंका आकर शनिदेव को अपने सिर पर बिठाकर मुक्त कराया.

शनि के सिर पर बैठने से हनुमान कई बुरे चक्रों में पड़ सकते थे यह जानकर उन्होंने ऐसा किया. तब शनि ने प्रसन्न होकर हनुमान को अपने मारक कोप से हमेशा मुक्त रहने का आशीर्वाद दिया और एक वर मांगने को कहा. हनुमान ने अपने भक्तों को हमेशा शनि के कोप से मुक्त रहने का आशीर्वाद मांगा. इसलिए कहते हैं कि जो भी हनुमान की उपासना करता है उस पर शनि की दृष्टि कभी नहीं पड़ती.

हनुमान जी की शादी नहीं हुई, फिर कैसे हुआ बेटा ?

बाल ब्रह्मचारी’ शब्द हनुमान जी के जीवन से जुड़ा हुआ है क्योंकि उन्होंने कभी भी शादी नहीं की. फिर कैसे हनुमान जी का पुत्र हुआ ? क्या वास्तव में हनुमान जी का पुत्र था ? हनुमान जी को ‘राम नाम’ की लगन लग गई थी और वो सुबह से लेकर रात तक केवल ‘राम’ नाम का जाप किया करते थे जिस कारण उन्होंने शादी ना करने का फैसला ले लिया पर इसके बावजूद भी हनुमान जी का पुत्र हुआ जिसका नाम मकरध्वज था.

hanuman jiजब हनुमान जी अपने पुत्र से मिले

क्या वास्तव में मकरध्वज हनुमान जी का पुत्र था? इसको बताने से पहले हम आपको यह बताते हैं कि कब हनुमान जी अपने पुत्र मकरध्वज से मिले. वाल्मीकि जी ने रामायण में लिखा है कि युद्ध के दौरान रावण की आज्ञानुसार अहिरावण राम-लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल पुरी ले गया जिसके बाद रावण के भाई विभीषण ने यह भेद हनुमान जी के समक्ष प्रकट किया कि भगवान राम और लक्ष्मण को कहां ले जाया गया है. तब राम-लक्ष्मण की सहायता करने लिए हनुमान जी पाताल पुरी पहुंचे.


जैसे ही हनुमान जी पाताल के द्वार पर पहुंचते हैं तो उन्हें एक वानर दिखाई देता है, जिसे देख वो हैरत में पड़ जाते हैं और मकरध्वज से उनका परिचय देने को कहते हैं. मकरध्वज अपना परिचय देते हुए बोलते हैं कि ‘मैं हनुमान पुत्र मकरध्वज हूं और पातालपुरी का द्वारपाल हूं’.

मकरध्वज का परिचय सुनकर हनुमान जी क्रोधित हो कर कहते हैं कि ‘यह तुम क्या कह रहे हो ? मैं ही हनुमान हूं और मैं बाल ब्रह्मचारी हूं. फिर भला तुम मेरे पुत्र कैसे हो सकते हो’ ? हनुमान जी का परिचय पाते ही मकरध्वज उनके चरणों में गिर गए और हनुमान जी को प्रणाम कर अपनी उत्पत्ति की कथा सुनाई.

भगवान पर यकीन बनाए रखना..ऐसा आपके साथ भी हो सकता है




hanuman and his son makardhwajमकरध्वज के जन्म की कहानी

मकरध्वज, हनुमान जी को देखते हुए कहते हैं ‘जब आपने अपनी पूंछ से रावण की लंका दहन की थी, उसी दौरान लंका नगरी से उठने वाली ज्वाला के कारण आपको तेज पसीना आने लगा था. पूंछ में लगी आग को बुझाने के लिए आप समुद्र में पहुंच गए तब आपके शरीर से टपकी पसीने की बूंद को एक मछली ने अपने मुंह में ले लिया जिस कारण मछली गर्भवती हो गई. कुछ समय बाद पाताल के राजा और रावण के भाई अहिरावण के सिपाही समुद्र से उस मछली को पकड़ लाए. मछली का पेट काटने पर उसमें से एक मानव निकला जो वानर जैसा दिखता था और वो वानर मैं ही था पिता जी! बाद में जाकर सैनिकों ने मुझे पाताल का द्वारपाल बना दिया’.

मानव जीवन एक विनाश में प्रवेश करेगा

जब-जब इंसान ने भगवान बनने की कोशिश की है कुछ न कुछ विनाशकारी हुआ है. प्रकृति की अवहेलना प्रकृति ने कभी बर्दाश्त नहीं की है. एक बार फिर मानव प्रकृति की अवहेलना करने की ओर उन्मुख है. जीवन-मृत्यु जैसी चीजें जो हमेशा बस प्रकृति के वश में रही हैं, आज मानव ने जब इसे अपने अधिकार में लेकर मौत पर काबू पाया है तो क्या होगा प्रकृति का रवैया इसपर? क्या प्रकृति इसे माफ कर देगी या मानव जीवन एक विनाश में प्रवेश करेगा?

विज्ञान और भगवान में इतना फर्क है कि भगवान इंसान बना सकता है, सांसें लेने वाले शरीर, पादप बना सकता है, प्रकृति की रचना कर सकता है जो विज्ञान नहीं कर सकता. विज्ञान रोबोट बना सकता है, मानव क्लोन बना सकता है लेकिन श्वास लेने वाला मानव या अन्य कोई जीव शरीर नहीं बना सकता. पर अब विज्ञान ने ऐसा कर दिखाया है.

मेडिकल साइंस ने आज कितनी भी तरक्की कर ली हो, जीवों की शारीरिक संरचना को भले ही समझ लिया हो, बड़ी से बड़ी बीमारियों तक का इलाज भी ढूंढ़ लिया हो लेकिन विज्ञान अब तक इन जीवों की प्राकृतिक संरचना के समान रूप बनाने में असफल रहा है. पर ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में विज्ञान अब भगवान बनने की तैयारी कर रहा है. अभी हाल ही में पेरिस के जॉर्जेज पॉंम्पिडॉऊ अस्पताल में एक 75 वर्षीय दिल के रोगी में सफलतापूर्क कृत्रिम दिल ट्रांसप्लांट किया गया है. लिथियम-ऑयन बैटरी से चलने वाला यह कृत्रिम दिल फ्रेंच बॉयोमेडिकल फर्म कार्मेट द्वारा बनाया गया है. सिंथेटिक जैसे प्लास्टिक मैटेरियल आदि खून के संपर्क में आकर इसका थक्का बना सकते हैं. इसलिए इस कृत्रिम दिल का बाहरी हिस्सा जो खून के संपर्क में आता है सिंथेटिक की बजाय बोवाइन टिशू से बनाया गया है.

एक किलोग्राम से भी कम वजन का यह दिल प्राकृतिक स्वस्थ दिल से तीन गुना ज्यादा भारी है. हालांकि अमेरिका में 1963 से ही कृत्रिम दिल को लेकर अनुसंधान चल रहे थे लेकिन यह पहला मौका है जब सफलतापूर्वक ऐसा कोई दिल असली दिल की जगह फिट किया जा सका है. इससे पहले दिल के सहायक यंत्र (पेसमेकर आदि) तो शरीर में फिट किए गए हैं या किसी डोनर के दिल क्षतिग्रस्त दिल की जगह लगाए गए हैं. लेकिन मेडिकल साइंस के इतिहास में पहली बार पूरा का पूरा दिल एक कृत्रिम दिल के साथ सफलतापूर्क बदला जा सका है. इससे दिल के क्षतिग्रस्त होने से मरीजों के मरने की संभावना कम हो जाएगी. हालांकि पूरे विश्व में 1 लाख कृत्रिम दिल की मांग की तुलना में अभी केवल 4 हजार ही उपलब्ध हैं और आम आदमी के बजट से बहुत दूर इसकी कीमत 150 डॉलर रखी गई है लेकिन निकट भविष्य में पूरी मांग के अनुरूप इसकी संख्या उपलब्ध होने की उम्मीद है. इस दिल के साथ एक और दिक्कत इसका आकार है.

उसका शरीर चुंबक बन जाता है



कृत्रिम दिल 80 प्रतिशत पुरुषों के दिल की जगह तो फिट हो सकते हैं लेकिन बड़ी आकार के कारण केवल 20 प्रतिशत महिलाओं के दिल को ही इससे बदला जा सकता है. इसे बनाने वाले इंजीनियर्स निकट भविष्य में इसके इन दोषों को दूर करते हुए और भी बेहतर कार्यप्रणाली के साथ इसे लाए जाने की उम्मीद जताते हैं. फिलहाल तो इंसानों के खुश होने के लिए इतना ही काफी है कि अब वे जिंदा रहने के लिए अपने एक ही दिल के मुहताज नहीं हैं..मतलब अगर इसने खराब होकर आपको मारने का मन बना लिया है तो आप भी इससे नाराज होकर इसकी जगह दूसरा दिल ला सकते हैं. लेकिन विज्ञान की हर तरक्की ने मनुष्य को जितनी सुविधाएं दी हैं, प्रकृति की बाध्यताओं से आजादी दी है, उससे कहीं अधिक खतरनाक उसका कुप्रभाव रहा है जो बाद में पता चलता है. प्रकृति मृत्यु पर इस मानव रोक को किस रूप में लेगी यह भी भविष्य में गर्त में है लेकिन फिलहाल तो यह मानव हित में विज्ञान की एक और महान सफलता मानी जा रही है.

सेना में भूत को मिलता है वेतन और प्रमोशन

भारतीय सेना न सिर्फ एक भूत की सेवा ले रही है बल्कि उसे वेतन, प्रमोशन और पद की सभी सुविधाएं भी दे रही है. शायद आप इसे पढ़ते हुए थोड़ा अविश्वसनीय मुद्रा में होंगे लेकिन यह सौ फीसदी सच है. भूत-प्रेतों की कहानियां अगर कहानियों में हों तो लोग मजे लेकर पढ़ते, देखते और सुनते हैं. सामान्य भाषा में ये कथित भूत हमारे मनोरंजन का एक बड़ा साधन हैं. पर जब-जब हकीकत में इनके अस्तित्व की बात आती है तो इन्हें झुठला दिया जाता है. हालांकि इसे पढ़कर भूतों के अस्तित्व पर एक बार आप जरूर सोच में पड़ जाएंगे.

1963 का इंडो-चाइना वार आपको पता होगा. उस युद्ध में शहीद होने वाले सिपाहियों में हरभजन सिंह भी एक थे. 1962 के डोगरा रेजिमेंट के जवान हरभजन सिंह भारत-चीन के उस युद्ध में चीन के विरुद्ध युद्ध में शामिल हुए और शहीद हो गए. कहते हैं कि शहीद होने के तीन दिनों तक उनकी लाश भारतीय आर्मी को नहीं मिली और उनके किसी साथी जवान के सपने में उन्होंने अपने मृत शरीर की जगह बताई थी. उसके बाद पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया. लेकिन उसके बाद भी हरभजन सिंह ने अपनी आर्मी ड्यूटी से मुंह नहीं मोड़ा और बाबा बन गए. कैसे? यह भी एक मनोरंजक कहानी है.

कहते हैं कि भारत-चीन के उस युद्ध के विषय में भी हरभजन सिंह ने अपनी साथी जवानों को पहले ही बता दिया था. शहादत के बाद युद्ध इंडो-चाइना युद्ध समाप्ति के बाद ऐसा कहा जाता है कि अपने किसी साथी जवान के सपने में आकर हरभजन सिंह ने अपनी समाधि पर एक मंदिर बनाने की बात कही. उनके कहे अनुसार हरभजन सिंह की समाधि पर एक मंदिर बनाया गया. तब से हरभजन सिंह भारतीय सेना की इस रेजिमेंट के लिए ‘बाबा’ बन गए. यहां की रेजिमेंट के लिए हरभजन सिंह उर्फ ‘बाबा’ आज भी सेना में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और भारतीय सेना वेतन समेत सेना में रहते हुए मिलने वाली सभी सुविधाएं बाबा को दे रही है जिसे सुनकर कोई भी अपने दांतों तले अंगुली दबा ले.

मरे हुए को उसने जिंदा कर दिया!



indian army ghostपूर्वी सिक्किम के नाथू ला दर्रे में हरभजन सिंह उर्फ बाबा की सेवाएं आज भी भारतीय आर्मी ले रही है और स्वभाव से कड़क और अनुशासित माने जाने वाले बाबा मरने के बाद से आज तक अपनी सेवाएं भारतीय आर्मी को पूरी ईमानदारी से दे रहे हैं. कहते हैं नाथू ला दर्रे में बाबा के नाम पर एक कमरा आज भी सुसज्जित है. यह कमरा अन्य सामान्य कमरों की तरह प्रतिदिन साफ किया जाता है, बिस्तर लगाया जाता है, हरभजन सिंह की सेना की वर्दी और उनके जूते रखे जाते हैं. कहते हैं रोज सुबह इन जूतों में कीचड़ के निशान पाए जाते हैं. माना जाता है कि बाबा सेना की अपनी पूरी जिम्मेदरी निभाते हैं. इसलिए भारतीय सेना इन्हें नियमित वेतन भी देती है, सैनिक के रूप में काम करते हुए अन्य फौजियों की तरह इनका पद भी मान्य है और समय-समय पर इन्हें प्रमोशन भी दिया जाता है. यहां तक कि ये सालाना नियत अपनी 2 महीने की छुट्टियां भी लेते हैं. इनके वेतन का एक हिस्सा जालंधर में रह रही इनकी मां के पास भेजा जाता है और इनकी छुट्टियों के लिए बाकायदा इनका सामान प्रथम श्रेणी के ट्रेन रिजर्वेशन के द्वारा इनके घर भेजा जाता है. किसी हवलदार के हाथों इनकी वर्दी समेत अन्य सामान इनके घर भेजा जाता है और छुट्टियां समाप्त होने पर उसी प्रकार उन्हें वापस भी लाया जाता है. कहते हैं कि बाबा की मान्यता सिर्फ भारतीय सेना में नहीं बल्कि बॉर्डर पर तैनात चीनी सेना में भी है. जब भी नाथू ला पोस्ट में चीनी-भारतीय सेना की फ्लैग मीटिंग होती है तो चीनी सेना एक कुर्सी हरभजन सिंह उर्फ बाबा के लिए भी लगाती है.

यह एक अविश्वसनीय और अजीब सी लगने वाली कहानी अवश्य है लेकिन सच है. जालंधर के ही किसी जवान ने एक मरे हुए जवान की पूजा करने और उसे सभी सुविधाएं देने और अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिए भारतीय सेना और डिफेंस मिनिस्ट्री पर कोर्ट में केस किया है. अब देखते हैं कि कोर्ट इस भूत के अस्तित्व पर क्या फैसला देता है.

अगर कर्ण धरती को मुट्ठी में नहीं पकड़ता तो अंतिम युद्ध में अर्जुन की हार निश्चित थी

हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत, भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है जिसे विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक गंथ माना गया है. इस काव्य के अंदर निभाए गए हर एक किरदार, श्लोक, ज्ञान आदि आज भी प्रत्येक भारतीय के लिए एक अनुकरणीय स्रोत रहे हैं. अगर किरदारों की बात की जाए तो हिंदुओं के इस प्रसिद्ध ग्रंथ में अंतरयामी भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर जिन दो पात्रों की अहम भूमिका रही है वह हैं विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कर्ण और अर्जुन.

Mahabharat

वैसे इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा और अंतिम दिनों में कौरवों की सेना के सेनापति कर्ण अपने प्रतिद्वंदी अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर थे जिसकी तारीफ भगवान श्रीकृष्ण ने भी की, लेकिन ऐसी क्या वजह रही कि युद्ध के अंतिम दिनों में कुंती पुत्र कर्ण निर्बल और असहाय हो गए?
सूर्य पुत्र कर्ण ने अपने जिंदगी के शुरुआती दिनों में ज्ञान, शक्ति, नाम और अधिकार प्राप्त करने के लिए काफी संघर्ष किया. ‘सूत-पुत्र होने की वजह से उनका हर जगह तिरस्कार किया गया. इन बाधाओं के बावजूद कर्ण ने तय कर लिया कि वह विश्व के श्रेष्ठतम धनुर्धर बनकर दिखाएंगे और अपना सम्मान हासिल करके रहेंगे, लेकिन अपने इसी जद्दोजहद के बीच वह कई बार गलतियां भी करते गए. उनकी इन्ही गलतियों ने कौरवों और पांडवों के युद्ध में उनको कमजोर बना दिया था.

आइए जानते हैं कर्ण की उन गलतियों को जिनसे वह लगातार कमजोर होते चले गए.
गुरु परशुराम से श्राप:

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जगह-जगह तिरस्कार के बाद सूर्य पुत्र कर्ण ब्राह्मण के भेष में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरु परशुराम के पास गए. कर्ण की योग्यता को देखते हुए महर्षि परशुराम ने उन्हें शिक्षा देने का निर्णय लिया.

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शिक्षा के अन्तिम चरण में एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे. कुछ देर बाद कहीं से एक जहरीला बिच्छू आया और कर्ण की दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा. गुरु परशुराम का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहते रहे. कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी, और उन्होंने देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है. वह काफी हैरान हो गए. उन्होंने कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छू डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में.

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उन्हें कर्ण पर शक हुआ. कर्ण ने जब सत्य बताया कि वह ब्राह्मण नहीं हैं तो परशुरामजी ने उन्हें मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उनके काम नहीं आएगी. हालांकि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर परशुराम को ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे. तब उन्होंने कर्ण को अपना ‘विजय’ नामक धनुष प्रदान किया और ये आशीर्वाद दिया कि उन्हें वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहते हैं. वैसे कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रूप में स्वयं इन्द्र थे, जो उनकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे.

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परशुराम के इस श्राप के कारण कर्ण कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में ब्रह्मास्त्र चलाना भूल गए थे नहीं तो वह युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिए अवश्य ही अपना ब्रह्मास्त्र चलाते. उधर अर्जुन भी अपने बचाव के लिए अपना ब्रह्मास्त्र चलाते जो पूरी पृथ्वी के विनाश का कारण बनता.

पृथ्वी माता से श्राप
लोक कथाओं के अनुसार एक बार कर्ण कहीं जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें एक कन्या मिली जो अपने घडे़ से घी के बिखर जाने के कारण रो रही थी. जब कर्ण ने उसके सन्त्रास का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि उसे भय है कि उसकी सौतेली मां उसकी इस असावधानी पर रुष्ट होंगी. कृपालु कर्ण ने तब उससे कहा कि बह उसे नया घी लाकर देंगे. तब कन्या ने आग्रह किया कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी ही चाहिए और उसने नया घी लेने से मना कर दिया. तब कन्या पर दया करते हुए कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में लिया और निचोड़ने लगा ताकि मिट्टी से घी निचुड़कर घड़े में गिर जाए. इस प्रक्रिया के दौरान उसने अपने हाथ से एक महिला की पीड़ायुक्त ध्वनि सुनी. जब उसने अपनी मुठ्ठी खोली तो धरती माता को पाया. पीड़ा से क्रोधित धरती माता ने कर्ण को श्राप दिया कि एक दिन उसके जीवन के किसी निर्णायक युद्ध में वह भी उसके रथ के पहिए को वैसे ही पकड़ लेंगी जैसे उसने उन्हें अपनी मुठ्ठी में पकड़ा है, जिससे वह उस युद्ध में अपने शत्रु के सामने असुरक्षित हो जाएगा.

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कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में यही हुआ. उस दिन के युद्ध में कर्ण ने अलग-अलग रथों का उपयोग किया, लेकिन हर बार उसके रथ का पहिया धरती मे धंस जाता. इसलिए विभिन्न रथों का प्रयोग करके भी कर्ण धरती माता के श्राप से नहीं बच सका और युद्ध हार गया.

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असहाय पशु को मारने पर श्राप
परशुरामजी के आश्रम से शिक्षा ग्रहण करने के बाद, कर्ण कुछ समय तक भटकते रहे. इस दौरान वह शब्दभेदी विद्या सीख रहे थे. अभ्यास के दौरान कर्ण ने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया. तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा.
इसके अलावा कर्ण ने अपने मित्र दुर्योधन के साथ रहकर कई अधर्म कृत्य किए जो कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में असहाय और अस्त्र विहीन होने की वजह बन गए.